Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ जैनहितैर्षा [भाग १४ धार्मिक विद्यालयोंमें संस्कृतके साथ साथ प्राकृतके चाहिए । अब हमें चाहिए कि इस ढंगको बदलें अध्ययनका भी खास प्रयत्न करें और कुछ और ग्रन्थप्रकाशनके कार्यको बहुत सावधानीके विद्यार्थियोंको प्राकृतका विशेषज्ञ बनावें जिनके साथ नई पद्धतिके अनुसार करें। द्वारा आगे प्राकृतग्रन्थांके सम्पादनका कार्य ३-प्रो. राजवाडेने अपने लेखम जो ग्रन्थकराया जा सके। यह तो कहनेकी आवश्यकता प्रकाशिनी संस्थाओंका उल्लेख किया है, वह ही नहीं है कि हमें सबसे पहले अपने बचे भी प्रधानतः श्वेताम्बर सम्प्रदायकी संस्थाओंको खुचे साहित्यके संग्रह करनेका, उसे सबके लिए लक्ष्य करके किया है । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें सुलभ कर देनेका और सिद्धान्त ग्रन्थोंके प्राण कई बड़ी बड़ी ग्रन्थप्रकाशिनी संस्थायें हैं और बचानेका उद्योग करना चाहिए। उनके द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों ग्रन्थ प्रकाशित होते २-प्राचीन ग्रन्थोंका सम्पादन किस ढंगसे हैं। दिगम्बर समाजका दुर्भाग्य है कि उसमें होना चाहिए, इस विषयमें प्रो० राजबाड़ेने जो एक तो ऐसी संस्थायें ही बहुत कम हैं और जो कुछ लिखा है उस पर हमारे समाजके ग्रन्थ- एक दो हैं भी, वे सुश्किलसे सालभरमें दस पाँच प्रकाशकों और सम्पादकोंको खास तौरसे ध्यान छोटे मोटे ग्रन्थ प्रकाशित करती हैं । दुनिया देना चाहिए । जिस समय हम यूरोपीय और कहींसे चलकर कहीं पहुँच गई, परन्तु हम सुशिक्षित भारतीय विद्वानोंके द्वारा सम्पादित लोगोंके मस्तकमें इस समय भी कुछ न कुछ प्राचीन ग्रन्थ देखते हैं उस समय सचमुच ही अंशमें यह गतानुगतिकताका भूत डेरा जमाये हुए यह खयाल होता है कि हम लोग अपने पाण्डि- है कि धर्मग्रन्थ छपानेमें पाप है। यही कारण त्यकी चाहे जितनी डींग मारें, परन्त अभी तक है कि छपे जैनग्रन्थोंका घरं घर प्रचार हो जानेहमको यह ग्रंथसम्पादनका कार्य आता ही पर भी अभी तक हमारी महासभा या प्रान्तिक नहीं है । हमारे ग्रन्थ इतने अशुद्ध और अप्रा- सभायें प्रकाश्यरूपसे स्वयं अपने द्वारा ग्रन्थप्रमाणिक पद्धतिसे छपते हैं कि किसी विषयका काशनका कार्य करानेमें डरती हैं। महासभ'का निर्णय करते समय उन पर विश्वास करनेको मुखपत्र जैनगजट तो छपे हुए जैनग्रन्थोंके जी ही नहीं चाहता। न तोमहीनों परिश्रम किये विज्ञापन प्रकाश करनेमें भी पाप समझता है ! बिना उनसे यह पता लग सकता है कि अमुक हमारी समझमें अब ये मूर्खताके ढंग बदल दिये ग्रन्थमें उक्तंच श्लोक आदि कितने हैं, कहाँ जाने चाहिये और दिगम्बर साहित्यके प्रकाशित कहाँ पर आये हैं और किन किन ग्रन्थोंके हैं करनेके लिए एक अच्छी संस्था स्थापित की और न कोई श्लोक ही ढूँढ़नेसे सहज ही उसमें जानी चाहिए। इसके बिना हमारा साहित्य मिल सकता है। पाठान्तर तो बहत ही कम दिन पर दिन नष्ट होता जा रहा है और इसका दिये जाते हैं । जिन ग्रन्थोंकी प्रयत्न करनेसे पाप हमारे ही सिर चढ़ रहा है ! अनेक प्रतियाँ मिल सकती हैं, उनके ४-बाम्बे यूनीवर्सिटीने अपने कोर्समें जो भी पाठान्तर नहीं दिये जाते हैं । कोई मागधीको स्थान दिया है, उससे भी हमें लांभे कोई सम्पादक महाशय तो यहाँ तक कृपा उठाना चाहिए। हमारी ओरसे भी मागधी पढनेकरते हैं कि ग्रन्थमें जहाँ कहीं ठीक समझमें। वाले विद्यार्थियों को सहायता देनेका प्रबन्ध नहीं आता है वहाँ अपनी बुद्धिके अनुसार होना चाहिए। मूल पाठको भी ठीक ( ? ) कर देते हैं और यह भी लिखने का कष्ट नहीं उठाते कि यहाँ पर मूल -नाथूराम प्रेमी। म तो ऐसा है, परन्तु हमारी समझमें ऐसा होन। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66