Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 15
________________ जैन समाजके शिक्षित । अङ्क १०-११ ॥ “हों, जातिसें पूर्ण प्रेम रखते हों, जातिमें पूरी • तरह घुसते हों, उसकी सब रीति रस्मों और चाल ढालको अच्छी तरह जानते हों, अपनी देश भाषा और देशी भाइयोंसे पूरा अनुराग रखते - हों, अपने देश और जातिकी घरेलू बातोंकी चर्चा में ही अपना दिल बहलाते हों और जाति की उन्नति करना अपना परम कर्तव्य समझते हों। कोरे पंडितों अथवा कोरे बाबुओंसे काम नहीं चलेगा । परन्तु यह तब ही हो सकता "है जब कि जातिके बालक अपने ही स्कूल और कालिजों में पढ़ें और अपने ही बोर्डिंगों में रहें जहाँ उनको उपर्युक्त सभी बातें बड़ी कोशिशके साथ सिखाई जावें और उनके हृदयमें जातिप्रेम और जात्युन्नतिका जोश खूब मजबूती के साथ कूटकूट कर भर दिया जाय । यहाँ हमें शोक और महाशोकके साथ लिखने पड़ता है कि हमारे पंडित लोग जाति से अंग्रेजी पढ़नेके प्रचारको तो बंद नहीं करते हैं और न बन्द कर ही सकते हैं-इस कारण जातिके बालक अंग्रेजी पढ़ पढ़ कर बाबू तो धड़ाधड़ बनते ज़ारहे हैं, दिन प्रतिदिन उनकी संख्या बढ़ती ही जाती है और वह आगेको और भी ज्यादा बढ़ेगी; परंतु फिर भी हमारे बहुतसे विलक्षण पंडित जातिकी तरफसे ऐसे स्कूल तथा कालिजोंके खड़ा करने और बोर्डिंगों के खोलनेको अन्तमें हम इतना कह देना जरूरी समझते हैं कि पंडितों, बाबू लोगों, धनाढ्यों तथा सर्व साधारण आदिके विषयमें जो कुछ भी लेखमें लिखा है उससे हमारा यह मतनहीं है कि वह सब पर ही लागू होता अथवा सब ऐसे ही हैं; नहीं, यह हमारा अभिप्राय हर्गिज नहीं है और न ऐसा हो सकता है बल्कि वास्तवमें तो पंडितों में भी अनेक प्रकारके लोग हैं, और बाबुओं में भी, और इसी तरह दूसरोंमें भी; और ऐसा ही सदा हुआ भी करता है । यहाँ तक कि बहुत से लोग ऐसे भी होंगे जिनपर हमारे लेखका एक अक्षर भी शिक्षा होती रहे और अंग्रेजीकी भी, जहाँ -रहकर जातिके बालकोंका धर्म कर्म सब ठीक ठीक बनता रहे, उन पर अपनी जाति और धर्मके प्रेमका संस्कार पढ़ता रहे और संगति भी अपनोंहीकी मिलती रहे । अतः जब तक इन पंडित महाशयोंकी यह अद्भुत महापाप बताते हैं जहाँ जैनधर्मका भी लागू न होता हो । हमारा अभिप्राय तो इस लेखमें जातिकी बहुत ही मोटी बाहरी दशाके दिग्दर्शन कराने का है, जिससे जातिके हितैषियों और शुभचिन्तकोंको इसकी अंतरंग दशाके जानने की उत्सुकता हो और वे इसके सुधारका कुछ उपाय करें । Jain Education International २९५ नीति चलती रहेगी तब तक जातिके बालक ऐसे ही स्कूलोंमें पढ़ते रहेंगे और ऐसे ही बोर्डिगोंमें रहते रहेंगे जहाँ जैनधर्म और जैनजाति के प्रेमकी तो कुछ भी चर्चा न हो; बल्कि जैनी ६०० में एक होनेके कारण अन्य मतियोंकी ही बहुलतासे उन्हींके धर्मकर्मकी चर्चा हुआ करती हो और उन्हींका प्रभाव पड़ता हो और ऐसे ही बाबू लोग बनते रहेंगे जैसा कि पंडित लोग इनको समझते हैं और फिर होते होते इन बाबू लोगोंकी बहुतायत से सम्भव है कि इनका असर जाति पर भी पड़ने लग जाय और सारी जाति ही इन जैसी हो जाय । इस लब है For Personal & Private Use Only י www.jainelibrary.org

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