Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 21
________________ अङ्क १०-११] जैनधर्मका अध्ययन। ३०१ अनेक लघुग्रन्थ, सारग्रन्थ, स्थूलवर्णनात्मक भाषाको इस समय बड़े बड़े जैनसाधु और "ग्रन्थ, रहस्योद्घाटकग्रन्थ ( Keys), शब्दकोष, विद्वान भी नहीं समझते हैं। क्योंकि जब कभी आदि भारतीय विद्वानोंके द्वारा सम्पादित होकर उन्हें उन ग्रन्थोंके समझनका काम पड़ता है वे प्रकाशित हो रहे हैं। और इनके सिवाय देशी मूलके साथ दी हुई संस्कृतछाया अथवा टीका माषाओंमें भी प्रतिवर्ष बहुतसा जैनसाहित्य परसे ही अपना मतलब निकालते देखे जाते प्रकट हो रहा है। हैं। इस पद्धतिका विशेष अनुसरण होनेके यह सब होनेपर भी अभी बहत कछ करना है। कारण मूल भाषा प्राकृतके अध्ययनकी उपेक्षा जैनधर्म एक ऐसी चीज है कि वह केवल जैनों- हो गई है और इसका परिणाम यह हुआ है कि को ही नहीं किन्तु प्राच्य संशोधनविद्या प्रत्येक उसमें अनेक भूलें और असंगतियाँ घुस गई हैं । विद्यार्थीको-विशेषकरके उन लोगोंको जो कि बहुतसी हस्तलिखित प्रतियाँ तो शुद्ध पाठापूर्वदेशीय धर्मोंका तुलनात्मक दृष्टिसे अध्ययन L न्तरोंकी दृष्टिसे निराशाजनक ही दिखलाई देती करना चाहते हैं-अपनेमें तन्मय करके रख हैं। इससे जैनसाहित्यका जिन्हें व्यासंग है उन्हें सकता है। सबसे पहले तो जुदा जुदा पुस्तकालयोंमें संगृहीत सारी प्रतियाँ एकत्र करके, उन्हें बारीकीके साथ __ इस समय अर्वाचीन संशोधनपद्धतिके अनु- परस्पर मिलान करनेका काम अपने हाथमें लेना सार और गुणदोषविवेचक दृष्टिसे, जैनधर्मका चाहिए और इसके बाद पाली टेक्स्ट सुसाइटीके अध्ययन होने की बहुत ही आवश्यकता है। इस छपाये हुए बौद्धग्रन्थोंकी तरह पवित्र जैनग्रविषयके निष्णात विद्वान् स्पष्ट शब्दोंमें यह बात न्थोंकी भी विश्वासपात्र आवृत्तियाँ तैयार करनी स्वीकार करते हैं कि इस तरह तुलनात्मक पद्ध- चाहिए । अवश्य ही, यह कार्य बहुत ही कष्टकर तिसे जैनधर्मका अध्ययन होनेसे प्राचीन भार- और श्रमसाध्य है, परन्तु जब तक यह कार्य तके इतिहाससे सम्बन्ध रखनेवाली ऐसी अनेक नहीं होगा तब तक इस विषयमें हमें एक पैर बातें प्रकाशित होंगी जो अभीतक सर्वथा आगे बढ़नेकी भी आशा न रखनी चाहिए। अज्ञात हैं और उनसे ऐतिहासिक कालके अनेक यह कार्य ऐसा नहीं है कि इसे कोई एकाद परिचयहीन खाली स्थान भर जायँगे । इस तरह व्यक्ति कर डालेगा। इसमें अनेक सभा सुसाइइतिहासप्रेमियों और भारतीय धर्मों तथा तत्त्व- टियों और संस्थाओंकी सहकारिताकी आवश्यकता ज्ञानके जिज्ञासुओंके लिए जैनसाहित्य एक होगी। वर्तमानमें इस दिशामें जो कितने ही सर्वथा नवीन और बिना जुता हुआ विस्तृत क्षेत्र प्रयत्न हो रहे हैं उनसे तो उलटी निराशा ही है । परन्तु इस समय जैनधर्मके निष्पक्ष और होती है। प्रायः सभी संस्थायें उत्तराध्ययन और समदर्शी अध्ययन करनेवालोंको बहुतसी कल्पसूत्र जैसे अतिशय लोकप्रिय ग्रन्थ ही कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता है । सबसे छपाती हैं । परन्तु उनके समान ही अन्य महपहली और मुख्य कठिनाई यह है कि उत्तमता- त्त्वके अन्य सर्वथा उपेक्षापात्र बन रहे हैं । इस पूर्वक सम्पादिक किये हुए मूल और प्रामाणिक कार्यके लिए सबसे उत्तम मार्ग तो यह है कि जैनग्रन्थोंका एक तरहसे अभाव हो रहा है । यह जितनी ग्रन्थप्रकाशक संस्थायें हैं, वे सब अपने तो सभी जानते हैं कि जैनोंके पवित्र ग्रन्थोंकी सम्मिलित उद्योगसे प्रामाणिक पद्धतिके अनुसार प्रधान भाषा अर्धमागधी नामकी प्राकृत है। इस यह मूल ग्रन्थ प्रकाशित करनेका काम उठा लें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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