Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 20
________________ ३०० जैनहितैषी [भाग १४ः है। रचना कविताकी दृष्टिसे साधारण है। जैनधर्मका अध्ययन । आपके लिखे हुए हमने दो ग्रंथ देखे हैं। १ श्रीप्रतिक्रमणसत्यबोध । यह ग्रंथ संवत् १९४७ में निर्णयसागर प्रेसमें छपा “प्रो० वेबर, बुल्हर, जेकोबी, हर्नल. था। ४०० पृष्ठका बड़ा ग्रंथ है। इस ग्रंथका भाण्डारकर, ल्यूमन, राइस, गेरीनाट आदि मूल विषय प्रतिक्रमणसत्र और उसका अर्थ विद्वानोंने यद्यपि बड़े ही परिश्रमसे जैनधर्मके थोड़े ही पृष्ठोंमें आगया है । ग्रंथके अधिकांशमें सम्बन्धमें अनेक महत्त्वकी खोजें प्रकाशित की चौबीसौं तीर्थंकरोंके स्तवन द्वादश भावनासे हैं, तो भी हम देखते हैं कि भारतीय विद्रा और जिन देवोंकी अनेक प्रकारकी बंदनायें दी नौने अभी तक इस धर्मके अध्ययनकी ओर हैं । विविध छंदोंका प्रयोग हआ है। नमना जितना चाहिए उतना ध्यान नहीं दिया है। देखिए: जिस समय प्राच्य विद्याओं, और कलाओंके संशोजिनसासन स्वामी,अंतरजामी, शिवगतगामी, सुखकारी, धनका प्रारंभकाल था, उस समय जैन जगमें जसवंता, श्रीभगवंता, सुगुणअनंता, उपगारी । । साधुओंकी उदासीनताके कारण, अथवा हस्तसिद्धार्थकुलआया,जगत सुहाया शुभपलआया. गुणधारी: लिखित पुस्तकोंमें छुपे हुए अपने धमका पवित्र धनत्रिसलानंदन कुलध्वजस्यंदन जिनचरननकी बलिहारी॥ ज्ञान जैनेतराको देना वे पसन्द नहीं करते समकित क्रिया बिना जगतमें, नहिकोई तारणहारी जी। थे इस कारण, संभव है कि भारतीयोंको तिलोक रिखजी कहे इम सर्दहो, जे सुगुणां नरनारी जी॥ इस धर्मके अध्ययनका सुभीता न मिला हो २ श्रीश्रेणिकचरित्र । इसकी मैंने एक और उसके बाद बौद्धधर्मके अध्ययनके बढ़ते नितान्त अशुद्ध हस्तलिखित प्रति देखी है। हुए अनुरागके कारण, कितने ही अंशोंमें इसका विषय नामसे ही स्पष्ट है । यह ग्रंथ उनकी इस महत्त्वपूर्ण धर्मकी ओर उपेक्षा हो मुनिजीने जिला पूना ( दक्षिण ) में रह कर गई हो-क्योंकि शुरू शुरूमें-विद्वानों के मस्तिष्क संवत् १९३९ में लिखा था । इसमें ६३ पृष्ठ पर बौद्धधर्मकी इतनी प्रबल सत्ता स्थापित हैं। उदाहरणः हो गई थी कि वे जैनधर्मको बौद्धधर्मकी एक राजै राज प्रजा सुखी, इक दिन सभा मँझार । शाखा ही समझने लगे थे; परन्तु अब तो वह खे' मारग थी आवियो, कोइक विद्याधार ॥ बात नहीं रही है, उनकी दृष्टिमर्यादाको आच्छाभूपतिसे विनती करै, गिरि वैताव्य मझार ।' दित करनेवाले परदे हट रहे हैं और इससे दक्षिण श्रेणि केरल पुरी, मृगाङ्क नरपतिसार जनधर्म पूर्वीय धर्मामें अपना स्वतंत्र स्थान प्राप्त विलासवती तस कन्यका, रूप कला नहिं पार । __ करता जा रहा है । इधर जैनसमाज भी जोबन वय देखी करी, भूपति करै विचार॥ आलस्य छोड़कर जाग रहा है। उसकी ओरसे (३) आपका तीसरा ग्रंथ पाँच पदकी अनेक समाचारपत्र और सामयिक पत्रादि प्रका शित होने लगे हैं। साधुओंको भी जान पड़ता बंदना है, जो गद्यमें है। है अपने उत्तरदायित्वका भान हो रहा है। जैनधनिकोंके आश्रयसे अनेक संस्थायें दिनों दिन अधिकाधिक जैनग्रन्थ. प्रकाशित कर १ प्रकाश । २ से। रही हैं । जैनधर्म और जैनसाहित्यसम्बन्धी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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