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अङ्क १०-११]
हिन्दीके स्थानकवासी जैन लेखक।
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पड़े जल-धार त्रिविध वयार चले।।
ता समान जिनराजकी नाभी अति परधान । चपला चमके घन गरज करे शुचिधाय भूमि प्रताप टले। जिन आगम अनुसारथी' कहें मुनि मगन बखान ६ इस विधि पूरण पावस ऋतु हो, तब मुझ चिन्तितकी जब मेघकुमारने श्री महावीरका धर्मोपदेश
आस फले। सुना तब उनके चित्तमें वैराग्य उत्पन्न हो गया। नृप साथ तामे गज पर बै→ शिर छत्र होय, अरु घर आकर मातासे कहने लगेः
चमर ढले ॥
श्री जिन भाषियो मा अथिर यह संसार । मेघकुमार जब विवाहके योग्य हुए तब उनको जिन उदय रविको अथिर, तिम अथिर नर अवतार । " अद्भुत अलबेली अष्ट राज-कन्या विधियुत परणाई। नियम ना पुनि धनीसे होय दरिद नो आगार ॥१॥ समवयवाली भोली विशालनयनी मनमोहनगारी। नलिनदलगत जल तग्ल जिम तड़ितको झवकार। शशिबदनी, नासा शुकसमान, जस अधर अरुण छबि जलद बुदबुद सुर-धनुष सम चपल आयु विचार ॥२॥
. न्यारी॥ जिम कुशाके अग्रपर जल-बिन्दु थिति निरधार । दाडिम-कणदंती सोहै वो सुर नरको मन मोहै। तरल चल दल बाण संध्या सरिस आयु निहार ॥३॥ ग्रीवा कम्बू सम भुज मृणाल सरसी शुचि नरम कलाई चैतन्य चिड़ियाकी करै जब काल बाज सिकार । कज कोमल कज पल्लव पर महँदी बुंद अमंद लसै है। तबै अबरै चिड़िया सम सजन रह जात पुकार ॥४॥" अति उत्तम शोभन रिदय, कठिन कुच कनक कुंभ इसी प्रकार बहुतसी बातें कहके मेघकुमारने
, सरसे हैं ॥ मुनिव्रत धारण करनेकी मातासे अनुमति माँगी। त्रिवली सह क्षामोदर है, नाभी पियूषको सर है। . माताने बहुत कुछ समझाबुझाकर मेघकुमारको कटि केहर लखि सरमाय मदनके सदन सुमन सुख. वैराग्य लेनेसे रोकना चाहा, परन्त सब प्रयत्न
दाई ॥” निष्फल हुआ । अंतमें माताने मेघकुमारकी विवाहके पश्चात् एक बार मेघकुमार वीर पत्नियोंको बुलवाया। वेभगवान्के समव-सरणमें गये । यहाँ पर कविने
प्रियतमको पाइन प्रेम-पाशमै पदमनि बन बन आई। वीर भगवानका शिख-नख विर
जिन पहिरयो अनुपम वेश अंग आभूषण नूतन धारे। किया है। यथा--
मृदु कृष्ण अभ्रराजी समान सूच्छम केश समारे ॥ खगपति गरुड़ तनी परें, लम्बी अरु ऋजु जान । देणी काली धुंघराली, चोटी जडावनी डाली। ऊँची घ्राण जिनशकी, कहि मुनि मगन बखान ॥१॥
शिर शीस फूलमणिरतन-जटित, मुतियनसे माँग उपचित परम उदार, जैसे होवें बिम्बफल ।
___ भराई ॥१॥ ता समान सुखकार, अधर लसें जिनराजके ॥ २॥ कल दल सम कोमल करतल पर महँदी अमंद राजै है। रक्त हस्त-तल अरु सुकुमार, उन्नत पुष्ट सुंदराकार। लचकती लंक पर हेममेखला अति अद्भुत छाजै है ॥ अति प्रशस्त लक्षणयुत जान, छिद्ररहित जिनके नपुर पग माँहि विराजै, जिन लख सुर-परियाँ लाजै ।
जुग पाण ॥ ३॥ पग धरत धरणि पर अचक पचक बिछुअनकी तरुण सूर्यको किरण कर, ज्यों जाग्रत कज होय।
झनक सुनाई ॥२॥ त्यों गंभीर रु पसरती, नाभि आकृती जोय ॥४॥ अपनी स्त्रियोंके देखने पर और माताके पुनः नाभि आकृती जोय, किधों सर सरितामाँही। समझाने पर भी मेघकुमार अपने संकल्पसे विचभ्रमर दक्षिणावरत तरंगें अधिक तहाँ ही ॥ ५॥ लित न हुए और उन्होंने माता-पितासे बलात्कार १ तब । २ कारी अर्थात् करनेवाली। ३ हृदय । १ से। २ का । ३ सदृश । ४ अन्य । ५ की।
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