Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ अङ्क १०-११] जैनसमाजके शिक्षित। २९१ मुश्किल हो जाता है, अतः वे कारोबारी हो- ७-८ वर्षकी उमरसे लेकर २३-२४ वर्षकी कर भी छतछातके विषयमें अनेक प्रका- उमर तक बराबर अंग्रेजी भाषाका ही अभ्यास रसे ढीले ही रहते हैं, परन्तु यह संकोच उनके करते करते और इस अभ्यासमें निपुण होनेके हृदयमें जरूर रहता है कि ऐसा करनेसे हम वास्ते अपने साथके विद्यार्थियों तथा पाठकोंके साथ अपने जाति भाइयोंसे ताके अवश्य जाते हैं, साथ भी हरवक्त अंग्रेजीमें ही बात चीत करते करते ही वे यह भी जानते हैं कि जातिका पृथक् और कारबारी होने पर अपने पदका सब काम पृथक् व्यक्ति तो हमारे प्रभावसे सामने कुछ बोल भी अंग्रेजीमें ही करते रहनेसे इनको इस भाषाका नहीं सकता और यदि कुछ आक्षेप करता भी है इतना अधिक अभ्यास हो जाता है कि ये लोग तो उसकी कुछ चलती नहीं, परन्तु मरने जीने या परस्पर सदा अंग्रेजीमें ही बातचीत करते हैं विवाह शादी आदिके अवसरोंपर जब बिरादरीके और यदि देशभाषा भी बोलते हैं तो उसमें सब लोग इकटे होते हैं उस समय जातिके प्रत्येक भी आधे शब्द अंग्रेजीके बोल जाते हैं, यहाँ मनुष्य में ही समूहका • बल आजाया करता है, तक कि, अनपढ़ नौकरों चाकरोंसे बातचीत इस कारण उस समय छोटेसे छोटा आदमी .. करते हुए भी इनकी जबानसे कोई न कोई भी जातिके बड़े बड़े सर्दारोंपर आक्षेप करनेका शब्द अंग्रेजीका निकले बिदून नहीं रहता । ये साहस कर बैठता है और उसका वह आक्षेप लोग अपने घरका हिसाब किताब तथा अन्य बहत कुछ कार्यकारी भी हो जाता है । ऐसा प्रकारकी कोई याददाश्त भी अंग्रेजीमें ही । विचार कर ये बाबूलोग नित्य तो चाहे जैसी स्वच्छन्दतासे रहते हैं परन्तु बिरादरीके इकट्ठा व्यवहार भी अंग्रेजीमें ही किया करते हैं । ऐसी सा लिखते हैं और जहाँ तक हो सकता है पत्र-... होनेके अवसरपर बिल्कुल उन्हींका अनुकरण करने लग जाते हैं और छूतछात आदि सबही . दशामें इनको उन लोगोंसे मिलना जुलना और प्रकारके बंधनोंको पूरा पूरा पालके दिखाते हैं; र बातचीत करना बहुत ही मुश्किल तथा अरुबल्कि कभी कभी तो वे उस समय सर्वसाधारणसे १चिकर होता है जो अंग्रेजी नहीं समझ सकते हैं। भी आगे बढ़ जाते हैं और छूतछात आदि प यही कारण है कि देशभाषामें लिखी हुई पुस्तबंधनोंका खूब ही बढ़िया स्वांग बनाकर लोगोंके कोंका पढ़ना भी उनको अच्छा नहीं लगता, वे प्रशंसापात्र बनते हैं । ऐसा करनेके लिये उनको अपने प्यारे धर्मसे जानकारी प्राप्त करनेके वास्ते अपनी विचारबुद्धिके अतिरिक्त जाति से भी अंग्रेजी पुस्तकोंकी ही इच्छा रखते हैं, जिनके लोगोंका उदाहरण भी मिल जाता है जो मदि- न मिलनेके कारण उनको जन्मभर धर्मसे अन-- रापान और वेश्यागमन आदि अनेक महा कुक- जा जान ही रहना होता है । इसके सिवाय विद्यामाँसे दूषित होने पर भी जाति-बिरादरीके जी- ध्ययनके बहुत बड़े लम्बे समयमें रातदिन वनमें पूरी पूरी छूतछात दिखानेसे जातिले अंग्रेजी साहित्यका ही अध्ययन करते करते प्रशंसाभाजन ही बने रहते हैं, साथ ही ऐसे उनका "" उनको उनही विषयोंकी चर्चाका व्यसन हो धनवानोंका दृष्टान्त भी बहुत असर करता है जाता है जिनकी मुख्यता और बहुलता जो नित्य स्वच्छन्दताके साथ जीवन व्यतीत अंग्रेजी साहित्यमें पाई जाती है, और जिनकी करते हुए भी बिरादरीसंबंधी रीतिरिवाजोंको चर्चा अंग्रेजी समाचारपत्रोंमें हुआ करती है । प्रचलित रीतिके अनुसार कर देनेसे ही जातिके इस लिये गप-शपके समय भी ये बाबू लोग सर्दार बने रहा करते हैं। . ऐसी ही बातोंकी चर्चा करके अपना दिल... Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66