Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 9
________________ ammmmmmmmHINDI भद्रबाहु-संहिता। ४२७ का बनाया हुआ मालूम नहीं होता । उसके * गन्धर्वनगरं गर्भान् यात्रोत्पातांस्तथैव च । आदिके २४ या ज्यादहसे ज्यादह २५ अध्या- . ग्रहचारं पृथक्त्वेन ग्रहयुद्धं च कृत्स्नशः ॥ १६ ॥ योंका टाइप और साँचा, दूसरे अध्यायोंसे भिन्न वातिकं चाथ स्वप्नांश्च मुहूर्ताश्च तिथींस्तथा । करणानि निमित्तं च शकुनं पाकमेव च ॥१७॥ एक प्रकारका है । वे किसी एक व्यक्तिके बनाये। हुए जान पड़ते हैं और शेष अध्याय किसी परन्तु कथन करते हुए ' ग्रहयुद्ध ' के बाद 'ग्रहसंयोग अर्घकांड ' नामका एक अध्याय दूसरे तथा तीसरे व्यक्तिके । यही वजह है कि इस खंडमें शुरूसे २५ वें अध्यायतक तो कहीं ( नं० २५) दिया है और फिर उसके बाद कोई मंगलाचरण नहीं है; परन्तु २६ वें । 'स्वमाध्याय ' का कथन किया है । यद्यपि 'ग्रहसंयोग अर्थकांड' नामका विषय ग्रहअध्यायसे उसका प्रारंभ पाया जाता है, जो एक नई और विलक्षण बात है + । आम तौर पर जो युद्धका ही एक विशेष है और इस लिए श्लोक ग्रंथकर्ता ग्रंथों में मंगलाचरण करते हैं वे ग्रंथकी नं० १६ में लिये हुए ‘कृत्स्नशः' पदसे उसका आदिमें उसे जरूर रखते हैं । एक ग्रंथकर्ता ग्रहण किया जा सकता है; परन्तु इस अध्या यके बाद 'वातिक ' नामके अध्यायका कोई होनेकी हालतमें यह कभी संभव नहीं कि ग्रंथकी आदिमें मंगलाचरण न दिया जाकर ग्रंथके मध्य वर्णन नहीं है। स्वप्नाध्यायसे पहले ही नहीं, भागसे भी पीछे उसका प्रारंभ किया जाय । बल्कि पीछे भी उसका कहीं कथन नहीं है । इस इसके सिवाय इन अध्यायोंकी संधियोंमें प्रायः । लिए कथनसे इस विषयका साफ छूट जाना 'इति ' शब्दके बाद " ग्रंथे भद्रबाहुके निमित्ते" . पाया जाता है । इसके आगे, विषय-सूचीमें, ऐसे विशेष पदोंका प्रयोग पाया जाता है, जो दिये हैं: श्लोक नं० १७ के बाद ये दो श्लोक और २६ वें अध्यायको छोड़कर संहिता भरमें और ज्योतिष केवलं कालं वास्तु दिव्येन्द्रसंपदा । किसी भी अध्यायके साथ देखनेमें नहीं आता। लक्षणं व्यंजनं चिह्न तथा दिव्यौषधानि च ॥१५॥ और इसलिए यह भेद-भाव भी बहुत खटकता बलाबलं च सर्वेषा विरोधं च पराजयं । है। संपूर्ण ग्रंथका एक कर्ता होनेकी हालतमें इस तत्सर्वमानुपूर्वेण प्रब्रवीहि महामते ॥ १६ ॥ प्रकारका भेद भाव नहीं बन सकता। अस्तु। इन श्लोकोंमें 'बलाबलं च सर्वेषां' इस पदके अब एक बात और प्रगट की जाती है जो इस द्वारा पूर्वकथित संपूर्ण विषयोंके बलाबल कथनकी दूसरे खंडकी अध्याय-सूची अथवा विषय-सूचीसे सूचना की गई है; परन्तु कथन करते हुए, अध्याय सम्बंध रखती है और वह यह है कि इस खंडके नं०४१ और ४२ में सिर्फ ग्रहोंका ही बलाबल .पहले अध्यायमें, क्रमशः कथन करनेके लिए, जो दिखलाया गया है। शेष किसी भी विषयके अध्यायों अथवा विषयोंकी सूची दी है उसमें बलाबलका इन दोनों अध्यायोंमें कहीं कोई ग्रहयुद्धके बाद 'वातिक ' और वातिकके बाद वर्णन नहीं है और न आगे ही इस विषयका 'स्वप्म' का विषय कथन करना लिखा है। यथाः- कोई अध्याय पाया जाता है । इसलिए यह कथन अधूरा है और प्रतिज्ञाका एक अंश पालन ४ २६ वें अध्यायका वह मंगलाचरण इस प्रकार है:- * इससे पहले विषय-सूचीका निम्नश्लोक और है:नमस्कृत्य महावीरं सुरासुरनमस्कृतम् । उल्का समासतो व्यासात्परिवेषांस्तथैव च । . स्वमान्यहं प्रवक्ष्यामि शुभाशुभसमीरितम् ॥१॥ विद्युतोऽभ्राणि संध्याश्च मेघान्वातान्प्रवर्षणम् ॥१५॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 102