Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 10
________________ ५८४ प्रतिष्ठाको बढ़ाऊँ ? क्या मेरी पुत्री ऐशो-आरामके साधनोंसे भरे हुए महलोंकी अपेक्षा मेरे तम्बूके भीतर रहकर कुछ कम सुख भोगती है ? क्या मैं इतना पतित और नीच हो गया हूँ कि जिसको मैंने, नृत्य, गान संगीतादि नाना कलायें सिखलाकर बुद्धिशालिनी बनाया है उसकी बुद्धि पर मैं अपने स्वार्थके लिए अंकुश डालूँ और उसकी रुचि या पसन्दगीका खयाल किये बिना उसे जीवनके एक जोखिमसे भरे हुए व्यापारमें उलझा हूँ? मेरी समझमें कन्याको इस व्यापारमें डालनेका अधिकार स्वयं उस कन्याके सिवाय और किसीको भी नहीं है; और तो क्या साक्षात् परमेश्वरको भी नहीं है। यह काम तुम्हें-किरानेके व्यापारियोंको ही मुबारिक रहे! तुम्हें यह शिक्षा जन्मघुट्टीके साथ ही दे दी जाती है कि सस्ते भावसे खरीदना और महँगे भावसे बेचना। इसलिए किरानेके माफिक कन्याको भी चाहे जिसके हाथ बेच डालनेका कार्य तुमसे ही बनसकता है । जो लोग कन्याको पत्नीरूपमें खरीद सकते हैं, वे उसे वेश्याके रूपमें बेच भी सकते हैं ! यद्यपि वणिक् लोग स्त्रियोंको खुल्लमखुल्ला वेश्यापना नहीं करने देते हैं, परन्तु इसमें तो जरा भी सन्देह नहीं है कि जिस समाजमें मानसिक प्रेमके बिना बिबाह सम्बन्ध होता है उसमें पुरुष या स्त्री अथवा दोनों ही मानसिक व्यभिचार सेवन करते हैं। लोकलज्जाके भयसे वे शारीरिक व्यभिचार भले ही सेवन न कर सकें, पर गुप्त अनाचार सेवन करनेके अवसर तो ढूँढते ही रहते हैं। हमारी जातिमें बालकसे लेकर वृद्धतक प्रत्येक स्त्री और पुरुष स्वयं परिश्रम करके पेट भरते हैं और जिन्हें स्वयंके परिश्रमसे पेट भरनेकी जोखिमदारीका ज्ञान है वे ऐसा कभी नहीं कर सकते कि अपने जीवनका हिस्सेदार किसी अयोग्य व्यक्तिको बनावें। 'उपयोग' ही हमारा मुख्य सिद्धान्त है और इसीलिए हमने अपनी . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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