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न हो । क्योंकि इससे संसारी जीवनमें आत्माका बन्धन रहा आता है। अतएव मोक्ष पानेके लिए कर्मोंके आस्रवका बंद होना भी आवश्यकीय है। इसको संवर अर्थात् जीवमें कर्मोके आनेके द्वारका बंद होना कहते हैं, अतएव संवर और निर्जरा अर्थात् नवीन कर्मोका रुकना और एकत्रित कर्मोंका झड जाना धर्मसे सम्बन्ध रखते हैं। सदाचार तपस्या और ध्यान इन बातोंकी प्राप्तिके लिए मुख्य कारण हैं। तपस्या, मुख्य करके उपवास, कर्मोंकी निर्जरा करनेवाले समझे जाते हैं । यदि उनकी निर्जरा न हो तो वे उस व्यक्ति पर अपना बुरा परिणाम प्रकट करेंगे। जब अंतमें आत्मा सब कर्मोंसे रहित होकर पवित्र स्वरूप धारण कर लेता है तब वह अपने कर्मों के बोझसे इस संसारमें दबा नहीं रहता; किन्तु वह पुद्गलसे-जो कि अपने दबावसे आत्माको नीचे ही रखता है,-रहित हो कर लोकके ऊपर चला जाता है जहाँ वह सदैव मुक्त अवस्थामें रहता है; न तो उस पर संसारी पदार्थ कुछ असर डाल सकते हैं और न वह उन पर कुछ असर डालता है न उनकी पर्वा करता है। ये मुक्त आत्मा अर्थात् सिद्ध हैं और उन्हींमें गत तीर्थकरोंके आत्मा हैं। तीर्थंकरोंको जैनी परमात्मा मानते हैं। क्योंकि वे मुक्त आत्मायें हैं जिनका धार्मिक संसारी जीवन पुण्यात्माओंके लिए आदर्श होना चाहिए। परन्तु जैन इस बातको स्पष्ट रूपसे अस्वीकार करते हैं कि वे परमात्मा संसारी कामों पर कोई सीधा असर रखते हैं। वे ईश्वरको संसारका कर्ताधर्ता माननेके सर्वथा विरुद्ध हैं।
मैंने कर्मसिद्धांतका ( दिग्दर्शन मात्र ) वर्णन किया है। क्योंकि यह जैनोंकी दार्शनिक और धार्मिक पद्धतिका मुख्य आधार है। इस सिद्धान्त पर दृष्टिपात करनेसे उनके चारित्रके बहुतसे नियमोंको समझना सुगम होगा।
रहा
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