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है और हम कह सकते हैं कि जीव कर्मपुद्गलोंसे वैसे ही भर जाता है जैसे रेतसे थैला । इस प्रकार कर्मके पुद्गल जीवके प्रदेशोंसे मिल जाते हैं और ( कषायके कारण, जो बंधनका काम करती है ) जीवसे ऐसे मिल जाते हैं जैसे दूध पानीमें; और इस प्रकार जीव अपवित्र हो जाता है। कर्म जीवात्माके स्वाभाविक गुणोंका आवरण कर लेते हैं; ये गुण सम्पूर्ण ज्ञान और सुख हैं। कर्म इन गुणोंके प्रगट होनेमें बाधा डालते हैं । भिन्न भिन्न प्रकारके कर्म भिन्न भिन्न गुणोंके प्रकट होनेमें बाधक हैं। क्योंकि कर्म एक प्रकारके नहीं बरन् आठ तरहके होते हैं। जब कार्मिक पुद्गलोंका जीवमें आस्रव होता है तब वे आठ प्रकारके कर्मों अर्थात् कर्मकी आठ प्रकृतियोंमें , परिणत हो जाते हैं, जिस तरहसे हमारा खाया हुआ भोजन शरीरमें जाकर भिन्न भिन्न प्रकारके रसोंमें परिवर्तित हो जाता है। एक प्रकारका कर्म जीवकी ज्ञानकी स्वाभाविक शक्तिका आवरण करता है, दूसरे प्रकारका कर्म अंतरायका कारण होता है । एक गोत्रका ' बंधन करनेवाला होता है और दूसरा किसी भवकी आयुको स्थिर करता है और इसी तरहसे दूसरे कर्मोंको भी समझना चाहिए । हर प्रकारका कर्म कुछ काल तक अप्रकट रह सकता है; परन्तु अंतमें उसका असर अवश्य होता है और वह जीवकी स्थितिको अपने स्वभावके अनुसार कर देता है और असर पैदा करनेके बाद कर्मकी जीवसे निर्जरा हो जाती है।
निर्जरा। निर्जरासे जीव सब कर्मोंसे रहित होकर अपनी स्वाभाविक मुक्त अवस्थाको प्राप्त कर सकता है; यदि नवीन कर्मोंका निरंतर आस्रव :
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