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इसकी मीमांसा करेंगे | हमने पूर्वगामी पण्डितों के प्रदर्शित किये हुए पथ पर परिभ्रमण करके जो देखा है, वही पाठकोंके सामने निवेदित कर दिया ।
विविध-प्रसंग |
१ संस्कृतभाषा कभी बोलचालकी भाषा थी या नहीं ? मराठीके सुप्रसिद्ध पत्र 'विविधज्ञानविस्तार' के अगस्त के अंक में एक महत्त्वका लेख प्रकाशित हुआ है। उसमें इस विषय पर बहुत ही पाण्डित्यपूर्ण चर्चा की गई है कि संस्कृत भाषा किसी समय बोलचालकी भाषा थी या नहीं। इस विषय में एतद्देशीय और पाश्चात्य विद्वानोंमें परस्पर बहुत मतभेद है । एक पक्ष कहता है कि संस्कृत भाषा बोलचाल की भाषा कभी नहीं रहा । वह ब्राह्मण आदि विशिष्ट लोगोंकी - जो शिक्षित थे उस समयकी प्रचलित भाषासे भिन्न भाषा
थी। उनके सिवाय दूसरे लोग उसे नहीं जानते थे । वे स्वयं भी उसे
पढ़कर जानते थे। दूसरा पक्ष कहता है कि नहीं, संस्कृत एक समय जीवित भाषा थी । वह एक बड़े भारी प्रदेशकी बोलचाल की भाषा रह चुकी है । पाणिनि आचार्य के समय में वह बोली जाती थी । उस समय उसका नाम 'संस्कृत' नहीं था । पाणिनिने अपनी अष्टाध्यायी में उसका सिर्फ 'भाषा' के नामसे उल्लेख किया है। 'भाषा' इस नामसे मालूम होता है कि वह सर्व साधारणकी बोलचालकी भाषा थी। लेखक ने अपने इस पिछले मतकी पुष्टिमें बहुत ही संतोषयोग्य युक्तियाँ दी हैं और अपने विरुद्ध पक्षका बड़ी ही योग्यता से
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नोट - यह स्वर्गीय बाबू बंकिमचन्द्र चटर्जी के बंगला लेखका सारांश है— सब विचार उन्हींके हैं। जैनोंके लिए उपयोगी समझकर प्रकाशित किया जाता है ।