Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 57
________________ अर्थात् " न मेरे हृदयमें महावीर भगवानके प्रति कुछ पक्षपात है और न कपिलादिके प्रति द्वेषभाव । मेरा तो यह खयाल है कि जिसका वचन युक्तियुक्त हो, उसीको मान लेना चाहिए।" इस समय जैनसमाज इस कसौटीको खो बैठा है और इस कारण उसकी दृष्टि में पीतल और सोना, सीप और चाँदी, काच और हीरा, सब एक ही श्रेणीकी चीजें हैं । बड़े बड़े सिद्धान्तग्रन्थोंके आगे वह जितनी नम्रतासे मस्तक झुकाता है, उतनी ही नम्रतासे त्रिवर्णाचार जैसे जाली ग्रन्थोंके सामने झुकनेमें भी उसे कुछ संकोच नहीं होता। झूठी धर्मश्रद्धाके असह्य दबावने उसकी विवेकबुद्धिको इस तरह दबा दिया है कि उसके 'आगे सब धान बाईस पंसेरी' हो गया है । उसमें इतनी भी शक्ति नहीं रही है कि एक ही विषयके किन्हीं दो ग्रन्थोंके बीच कितना तारतम्य है-कौन श्रेष्ठ है और कौन नहीं, इस बातको स्पष्ट शब्दोंमें कह सके । यही कारण है जो आज शीलकथा और पार्श्वपुराण, आराधनासार और पद्मपुराण, धर्मसंग्रह और रत्नकरण्ड, स्वतन्त्र ग्रन्थ और संग्रहीत या अनुवाद ग्रन्थ सब समान आदरके पात्र बन रहे हैं । इसीके फलसे आज भट्टारकोंका पिछला दुर्बल साहित्य प्राचीन पुष्ट साहित्यको न जाने कहाँ दबाकर साहित्यसिंहासनको पुनीत कर रहा है । हमको विश्वास है कि यह लेखमाला जैनसमाजकी गई हुई परीक्षाप्रधानताको फिरसे प्रधानता दिलानेका सूत्रपात करेगी और शिक्षित समुद्रायमें प्रत्येक ग्रन्थको सावधानीसे पढ़नेके भाव उत्पन्न करेगी । बाबू जुगलकिशोरजीके लेख यह बतला रहे हैं कि वास्तविक स्वाध्याय किसको कहते हैं और यह कितने परिश्रमसे होता है । एक ग्रन्थकी जाँचके लिए दूसरे कितने ग्रन्थोंकी जाँच पड़ताल करनी होती है । अपने ग्रन्थोंको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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