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घृणितसे घृणित मर्मपीडक गालियोंसे भी व्यथित .या विचलित 'नहीं होते हैं, अतः उसका प्रतिवाद करनेकी आवश्यकता नहीं देखते। तीसरे हमारा यह भी विश्वास हो गया है कि उसके लेखोंका शिक्षित समुदाय पर कुछ भी असर नहीं पड़ता है। लोग अब इतने भोले
और नासमझ नहीं रहे हैं जितना कि वह समझता है । इन सब कारणोंसे उसके विषयमें कुछ लिखनेकी प्रवृत्ति नहीं होती है । अवश्य ही इस बातका दुःख हमें बहुत होता है कि वह भारतवर्षीय जैनमहासभाका मुखपत्र है और महासभा सारे भारतके जौनियोंकी संयुक्त सभा समझी जाती है। जैनमहासभाके मुखपत्रको पढ़कर जैनेतर लोगोंको जैनसमाजकी वर्तमान अवस्थाके विषयमें बहुत बड़ा भ्रम हो सकता है। यदि कोई सजन जैनसमाजकी हालत जाननेके लिए लगातार दो चार महीने जैनगजटका पाठ करें, तो उनके हृदयमें जैनसमाजका बहुत ही शोचनीय चित्र अंकित हो जायगा। वे निश्चय कर लेंगे कि जैनसमाजमें यदि कुछ प्रगति हो रही है तो गालीगलोजकी, खण्डनमण्डनकी, बाधा और रुकावटोंकी; यदि कुछ काम हो रहा है तो छापेके निषेधका, ग्रन्थप्रचार के विरोधका, तेरह-बीसकी दबी हुई आग सुलगानेका, प्रत्येक समयोपयोगी सुधारोंमें दोष लगानेका, और पुरानी निर्जीव · रूढियोंकी प्रशंसाके गीत गानेका । वे समझेंगे कि जैनसमाजके भाग्यकी बागडोर कुछ खुशामदपसन्द धनिकों और खुशामदखोर अर्द्धदग्ध पण्डित कहलानेवालोंके हाथमें है। ये ही लोग इस समाजके लेखक, व्याख्याता, प्रचारक और 'सर्वे सर्वा' हैं। इस समाजमें संकीर्णता, धर्मान्धता और स्वार्थपरायणताका साम्राज्य है। इत्यादि इत्यादि । यदि दूसरे लोग इस प्रकारका अनुमान कर लें तो इसमें उनका कोई दोष भी नहीं। एक समाजकी
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