Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 58
________________ ६३२ समझने के लिए केवल अपने ही घरको टटोलने से काम नहीं चल . सकता - दूसरों के ग्रन्थ भी देखने पड़ते हैं । इन लेखोंने हमें यह भी शिक्षा दी है कि सावधान ! किसी ग्रन्थ पर किसी ख्यातनामा आचा 1 का नाम देखकर ही उसे आप्तवाक्य न समझ बैठना । कुछ महात्माओं की कृपासे धर्मकी हाटमें चाँद के साथ साथ रांगेके भी सिक्के चल रहे हैं। ज़रूरत हैं कि ऐसे सिक्के खोज खोजकर जुदा कर दिये जावें और सर्वसाधारण जन सचेत कर दिये जावें । आशा है कि इस लेख को पढ़कर दूसरे विद्वान् जन भी ग्रन्थोंकी परीक्षा, आलोचना और समालोचनाकी ओर प्रवृत्त होंगे और इस तरह जैन साहित्य की उन्नति के एक मार्गको प्रशस्त बनानेके यशके भागी होंगे । ४ जैनगजट और महासभा | . जैनगजट ( हिन्दी ) के लेखोंसे उद्विग्न और उत्तेजित होकर हमारे कई हितैषी मित्र और पाठक हमसे प्रश्न करते हैं कि " आपने इन दिनों मौन धारण क्यों कर रक्खा है ? आप उसके आक्षेपोंका उत्तर क्यों नहीं देते हैं ? उसके लेखों से बहुत हानि हो रही है ।" ऐसे सज्जनोंसे हमारा नम्र निवेदन यह है कि इस समय वह जिस ढंगके लेख लिख रहा है, जैसी सभ्यता, शालीनता और गंभीरता अपने प्रत्येक लेखमें प्रकट कर रहा है, उसकी आलोचना करना या उसके विषयमें तदनुरूप उत्तर देना हम अपनी शक्ति से बाहर समझते हैं और शायद अच्छे से अच्छे लेखकको भी उसकी बे- लगाम कलमके आगे हार माननी पडेगी । इसके लिए उसके ' धर्ममर्मज्ञ" ' अनुभवी' सम्पादकों और लेखकों जैसी योग्यतावाले सज्जन ही समर्थ हो सकते हैं । दूसरे उसकी निरन्तरकी वाग्वाणवर्षाको सहन करते करते हमारी सहनशीलता इतनी बढ गई है कि अब हम उसकी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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