Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 50
________________ ६२४ यह कि इस प्रश्नको पहले पहल बौद्धोंने उठाया था और प्राचीन दार्शनिकोंने पहलेपहल उसका उत्तर दिया था। अतएव बौद्ध धर्म और दर्शनशास्त्रोंकी उत्पत्ति समकालीन समझी जा सकती है। __"वेदको हम क्यों माने ? ' इस प्रश्नकी विचारभूमिमें मीमांसक जैमिनीको महारथी और नैयायिक गौतमको उसका प्रतिद्वन्द्वी सम. झना चाहिए। ऐसा नहीं है कि नैयायिकोंको वेद मान्य नहीं है। नहीं वे वेदको मानते हैं, परन्तु मीमांसक जिन जिन कारणोंसे वेदको मानते हैं, नैयायिक उनको अग्राह्य करते हैं । मीमांसक कहते हैं कि वेद नित्य और अपौरुषेय है। नैयायिक कहते हैं कि वेद आप्तवाक्य मात्र है। नैयायिकोंने जिन युक्तियोंसे मीमांसकमत खण्डन किया है उनका सार मर्म यह है:___ मीमांसक कहते हैं कि सम्प्रदायाविच्छेदसे वेदकर्ता अस्मर्यमान है । सब बातें लोकपरम्परासे चली आ रही हैं, किन्तु यह किसीको भी स्मरण नहीं है कि वेदको किसने बनाया । इस पर नैयायिक कहते हैं कि प्रलय कालमें सम्प्रदायविच्छेद हो गया था । इस समय जो वेदका प्रणयन स्मरण नहीं है, सो इससे कुछ यह प्रमाणित नहीं होता है कि प्रलयके पहले वेद प्रणीत नहीं हुआ था । और यह भी तुम प्रमाण नहीं कर सकोगे कि वेदका कर्ता कभी किसीको स्मृत ही न था। वे और भी कहते हैं कि वेदवाक्य कालिदासादिके वाक्योंके समान ही वाक्य हैं । अतएव वेदवाक्य भी पौरुषेय वाक्य हैं । वाक्यत्व हेतुसे, मन्वादि वाक्योंके समान, वेदवाक्योंको भी पौरुषेय कहना होगा । मीमांसक कहते हैं कि जो वेदाध्ययन करता है उसके पहले उसके गुरुने अध्ययन किया था, उसके पहले उसके गुरुने, और उसके पहले उसके गुरुने; इस प्रकार जहाँ अनन्तपरम्परा है वहाँ वेद अनादि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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