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मनुष्य और देवों तक है; अपने पापपुण्यके अनुसार भिन्न भिन्न जन्मोंमें जीव इस श्रेणी पर उतरा और चढ़ा करते हैं । परन्तु केवल मनुष्यशरीरसे ही मुक्ति हो सकती है। मैंने जैनोंके जीव संबंधी सिद्धान्तका केवल दिग्दर्शन कराया है, जो एक अत्यन्त आवश्यकीय भाग है । जैन साहित्य |
मैं अधिक विस्तार के साथ न कहूँगा । अपने व्याख्यान के पहले भागमें जैनमतके अत्यन्त आवश्यकीय सिद्धान्तोकों ही मैंने वर्णन करनेका प्रयत्न किया है । इन सिद्धान्तोंका विस्तारपूर्वक वर्णन मौजूद है और उनकी व्याख्या अत्यन्त विस्तृत जैनसाहित्य के ग्रन्थों
की
नाम
गई है गई है । जैन साहित्यका व्याख्यानका अन्तिम विषय बनाता
और टीकाओं में की लेकर मैं इसे अपने हूँ । मैं जैनियोंके पवित्र साहित्य अर्थात् श्वेतांवरियों के सिद्धान्तों या सूत्रग्रन्थोंके विषय में कुछ न कहूँगा । मैं केवल उन पुस्तकोंके विषय में कहूँगा जो बादके लेखकोंने रची हैं । प्राकृत और संस्कृत के पवित्र ग्रंथों की केवल टीकाओंसे बना हुआ साहित्य पवित्र ग्रंथोंसे भी - जिनकी संख्या पाँच लाख कही जाती है-बडा है । जैनमतके सिद्धान्तों को बतलानेवाले ग्रन्थोंके अतिरिक्त बहुतसे प्राकृत और संस्कृत दोनोंके काव्य मौजूद हैं, जिनमें मुनियों, मुख्य करके तीर्थंकरों की जीवनियाँ लिखी गई हैं। इन ' चरित्रों का कुछ अंश ही प्रकाशित हुआ है और अधिकांश केवल हस्तलिखित ही मिलता है । इसमें से कुछ काव्यके असली ढंग पर लिखे हैं । इनमें केवल वे ही अलंकार हैं जो असली संस्कृतमें मिलते हैं । अन्य चरित्र कथाके अधिक सरल ढंग पर लिखे हैं; उनमें प्रायः कहानियाँ और अन्य कथायें - जिनको जैन भलेप्रकार कहना जानते थे - लिखी हैं । क्योंकि
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