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कदाचित् प्राचीन बौद्धों के अतिरिक्त भारतीय लेखकोंकी ऐसी कोई भी श्रेणी (समूह) नहीं है जो जैनोंके समान कहानियाँ कहने के और मुख्यकर ऐसी कहानियाँ - जिनसे धार्मिक शिक्षा निकलती हो - कहने के शौकीन हों | पंचतंत्र के लघुरूपों के लिए जो सबसे अधिक फैले हैं, हम जैनोंके ही ऋणी हैं। परन्तु भारतवर्ष के प्राचीन साहित्यके लिए एक दूसरी बात में भी जैनसाहित्य बड़े कामका है । प्राचीन पुस्तकोंके लेखों से हमको मालूम होता है कि ईसाकी प्रारंभिक शताब्दियोंसे दसवीं शताब्दि तक और उसके बाद तक शिक्षित लोगोंके लिए, जो उत्तम संस्कृतके ग्रन्थोंको नहीं पढ़ सकते थे, एक बड़ा प्राकृत साहित्य मौजूद था । परन्तु इस बड़े साहित्य मेंसे उत्तम संस्कृत साहित्य के महाकाव्यों के समान अति उत्तम ढंग पर लिखे हुए थोड़े ही ग्रंथ बचे हैं; शेष सब विस्मरणमें पड गये और सदैव के लिए लुप्त हो गये । हमको यह भी न मालूम होता कि ये किस तरहके ग्रन्थ थे, यदि जैनोंने अपने कुछ प्राकृत ग्रन्थ, कवितायें और कथायें न बचा ली होतीं । मैं पहले ' पउमचरिय' ( पद्मचरित) का वर्णन करता हूँ जो हमारे अधिकार में सबसे प्राचीन प्राकृत काव्य है; क्योंकि यह ईस्वी सन्के आदिमें ही रचा हुआ कहा जाता है । यह अवच्छिन्न वीररसमयी शैली में लिखा है और प्राकृत के बड़े वीररसमय साहित्यका - जो अब सर्वथा लुप्त हो गया है, शेषांश समझा जा सकता है । लेखकने स्पष्ट रूप से उस समय के मौजूद आदर्श ग्रंथोंका अनुकरण किया है; वह वीररसमय प्रथम ग्रंथ लिखनेवाला कदापि नहीं है । वीररसमय साहित्यके अतिरिक्त और कदाचित् उसके कुछ काल पश्चात् और पद्य दोनोंमें कथाके ग्रंथोंका बडा साहित्य बन गया । यह हमको अलंकारके लेखकोंके फुटकर उल्लेखोंसे मालूम
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गद्य
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