Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 40
________________ ६१४ जैनोंका चारित्रशास्त्र । मुख्य मुख्य चारित्रक नियमोंको प्राचीन कालमें ही सब हिन्दुओंने मान लिया था। ब्राह्मण, बौद्ध और जैन प्रथम चार व्रतों पर सहमत हैं; ये व्रत अहिंसा, अचौर्य, सत्य और ब्रह्मचर्य हैं। ऊपरके तीनों संप्रदायोंमें एक पाँचवाँ व्रत है, परन्तु वह भिन्न भिन्न मतों में भिन्न है । वे प्रथम चार व्रतोंके विषय में ही नहीं, किन्तु अहिंसाको प्रथम स्थान देने में भी सहमत है । किसीको इसमें सन्देह नहीं है कि किसी मनुष्यका घात करना, उसके माल छीन लेने अथवा उसको झूठ बोलकर धोखा देने की अपेक्षा कहीं बड़ा पाप है । परन्तु 'अहिंसा' की सीमा केवल मनुष्यजाति तक ही नहीं थी; इसका विस्तार जीवमात्र पर था । बौद्ध और जैन दोनों ही किसी जीवको मारना पाप समझते हैं, परन्तु केवल जैन ही ' अहिंसा' को उसके विस्तृत अर्थमें ' परमो धर्मः ' मानते हैं, और इसके परिणामोंको अंत तक ले गये हैं । और चूँकि वे वनस्पतिको भी जीवसहित मानते हैं, अतएव साधारण जीवन व्यतीत करनेवाले किसी पुरुषके अहिंसाका पूर्णतया पालना असंभव ही है; परन्तु साधुओं पर इस व्रतका पूर्ण बन्धन है और चारित्र के नियमों में से अधिकांश नियम अहिंसा से संबन्ध रखते हैं । गृहस्थ कमसे कम स कायके जीवोंकी हिंसासे बचते हैं अतएव वे पक्के शाकाहारी, होते हैं, यह तो तुम जानते ही हो। अहिंसा जैनोंका परम कर्तव्य हैं; उनके चारित्रका मूलाधार है । जैनोंका श्रद्धान | मैं कह चुका हूँ कि जैन वनस्पतिको भी जीवसहित, जीवोंके रहनेका स्थान अथवा पिंड समझते हैं । इस बात में वे अन्य हिन्दू दार्शनिकों से सहमत हैं । परन्तु वे जीव- संसारका विस्तार त्रस और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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