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जो कुछ हमें दिखता है वह वादर अवस्थाका पुद्गल है; परन्तु युद्गल सूक्ष्म अवस्थामें भी बदल सकता है और उस समय हमको दृष्टिगोचर नहीं होता। अब वह बात जो जनदर्शन सिद्ध करता है वस्तुओंकी स्थितिका-जैसी कि वे हमको जीव और पुद्गलका एक दूसरे पर असर पडनेसे मालूम होती हैं-कारण समझाना है और जैनदर्शनने यह बात अत्यंत अनुकूलता और सम्पूर्णतापूर्वक कर दिखाई है । अब मैं कुछ और व्योरेवार कहता हूँ। जैसा कि मैंने पहले कहा था जीव जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं करते, शरीर धारण करते रहते हैं। अतएव हमको मोक्ष गये हुए जीव जो संसारी जीवनसे निश्चयरूपसे मुक्त हो गये हैं, और संसारी जीवोंमें, जो अभी बन्धनमें हैं, भेद दिखलाना है । संसारी जीव पवित्र नहीं होते किन्तु वे न्यूनाधिक अपवित्र होते हैं। जीव अपने कर्मोंसे अपवित्र हो जाता है ।
कर्म। सर्व भारतीय दार्शनिक इस बात पर सहमत हैं कि हरएक काम जो हम करत हैं हमार जीवों पर असर डालता है, उन पर कुछ चित्र बना देता है और यह चित्र उस समय तक रहता है जब तक वह बेअसर नहीं हो जाता। यह चित्र कर्म कहलाता है और यह उस व्यक्तिके जो अपने कर्मके कारण जीवनकी भिन्न भिन्न स्थितियोंको ग्रहण करता है, सुख या दुःख भोगनेसे बेअसर हो जाता है। अब जैनदर्शनमे केवल जीव और पुढल ही माने गये हैं, अत: यह अनुमान होता है कि कर्म अवश्य पोद्गलिक है; वास्तवमें जैन इस बातको ठीक ऐसा ही मानते हैं। कर्म पुदलकाय है । कर्मके विषयमें उनके विचार ये हैं:-किसी व्यक्तिके कर्मसे उसके जीवमें पुद्गलके अणु मूक्ष्मरूपमें जाने लगते हैं; सूक्ष्म पुद्गलोंका जीवमें आस्रव होने लगता
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