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सिद्धान्तोंके विषयमें जो कुछ मालूम हुआ उससे असली बौद्धों और जैनोंके मतोंमें बौद्धोंके अत्यन्त दूर दूरके सम्प्रदायोंसे भी अधिक मौलिक भिन्नता मालूम हुई । इस ऊपरी सिद्धान्तके आधार पर अन्य विद्वानोंने नवीन सिद्धान्त बना लिये, जिनकी धृष्टता उतनी ही अधिक है जितनी जैनमतसम्बन्धी असली सामग्री कम है और इसी कमीको इस धृष्टताका कारण आसानीसे कहा जा सकता है। परन्तु गत शताब्दिके ६० वें और ८० वें वर्षके मध्यवर्ती कालमें कुछ परिवर्तन किया गया । उस समय डाक्टर बुहलरको जो गुजरातमें शिक्षा-विभागके निरीक्षक थे-जैनोंके हस्तलिखित ग्रन्थोंके संग्रह करनेमें सफलता प्राप्त हुई । ये ग्रन्थ दक्खिन कालिजके पुस्तकालय और इंगलिस्तान, और शेष यूरुपके कुछ पुस्तकालयोंके अधिकारमें चले गये । मैं भी अपने मित्र डाक्टर बुहलरकी सहायतासे मुख्य अंगों और उपांगोंकी हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त कर सका । इसी समय बौद्ध धर्मग्रन्थोंका अन्वेषण भी बड़े जोशसे हो रहा था और इस काममें बहुत उन्नति हो चुकी थी। इसी समय मुझे जैनधर्मका अध्ययन आरम्भ करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ; इस अध्ययनसे मैंने शीघ्र ही पुरानी कल्पनाको अस्वीकार किया और मुझे विश्वास होगया कि जैनमत बौद्धमतसे सर्वथा स्वतन्त्र है।
अन्तरस्थ साक्षी। मुझे जैन धर्मग्रन्थोंसे बुद्धदेवके समसामयिकों, मगधके राजाओं, और उस समयके कुछ धार्मिक नेताओंके नाम जैनोंके चौवीसवें तीर्थकर श्रीमहावीरके समकालीन मालूम हुए और बौद्धोंके धर्मग्रन्थोंमें महावीरका उल्लेख 'निगंथनातसुत' के नामसे मिला। 'नातसुत' श्रीमहावीरका नाम है, क्यों कि वे क्षत्रियोंकी 'नात' जातिके थे
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