Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 33
________________ ६०७ डाक्टर जैकोबीका व्याख्यान। ( राजकोटमें दिया हुआ।) जैनधर्म पर एक व्याख्यान देनेके लिए मुझसे कहा गया है; यह एक ऐसा विषय है जिससे मेरा परिचय चिरकालिक अध्ययनसे और भारतवर्षकी अवस्थाके अनुभवसे हो गया है। हमने जैनधर्मकी स्थिति थोड़े ही कालसे समझी है; पहले विश्वास था कि यह बौद्धधर्मकी शाखा है, क्योंकि उस समय बुद्धदेवको पश्चिमी विद्वान् भली भाँति जान गये थे और चूँकि बौद्धधर्मको उसके अपने जन्मस्थान भारतवर्षके बाहर बहुतसी एशियाकी कौमोंने ग्रहण किया है। अतएव यह धर्म स्वभावतः समान मतोंका मूल समझा जाने लगा और जैनमत भी इन समान मतों से एक मालूम होता था। साधु-धर्म। बौद्धमतकी तरह जैनमत भी असलमें और मुख्य करके साधुधर्म है। अर्थात् यह मुख्यतः साधुओं और साध्वियोंके संघके लिए है और श्रावक दूसरी श्रेणीके समझे जाते हैं । अतएव यह मालूम होता था कि जैन और बौद्ध साधु अपने जीवनके बाहरी स्वभावमें बहुत कुछ समानता रखते हैं । इसके अतिरिक्त कोई ऐसी विशेषता न थी जो इस बातको पुष्ट करती कि इन दोनो मतोंका एक ही निकास था । बौद्ध और जैन प्रतिमाओंमें भी बड़ी समानता है, दोनों ध्यानस्थ अवस्थामें होती हैं और कुछ समय पहले बुद्धदेव और तीर्थकरोंको अलग अलग पहचानना कठिन था। इन सब बातोंसे यहीं परिणाम निकाला गया कि जैनमत बौद्धधर्मका एक सम्प्रदाय है जो बौद्धधर्मसे प्राचीन कालमें ही जुदा हो गया । क्योंकि जैन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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