Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 20
________________ ५९४ रिणी बुद्धिका पता लग चुका था। यदि वह उस प्राणवलभाके पाणि ग्रहणके लिए किसी राजाको प्रसन्न करनेकी प्रतिज्ञा न कर चुका होता तो यह चौथी बारका प्रयत्न कदापि न करता। इसमें वह अपना बड़ा भारी अपमान भी समझता था। उसका साहस शिथिल हो रहा था कि इतनेमें गद्गतचित्ता नटकन्याने उसको उत्तेजित किया और अन्तमें उसके कानके पास जाकर कह दिया-"मुझे इस कारण बड़ा ही कष्ट हो रहा है कि तुम्हें इस अपमानभरे हुए कष्टमें डालनेवाली मैं ही हूँ। परन्तु प्यारे, तुम मुझे अपने दृढ़ निश्चय और सच्चे हृदयसे वरण कर चुके हो, इसलिए अब तुम्हारा यही खेल अन्तिम खेल होगा। राजा प्रसन्नता प्रकट करे या न करे, पर मैं तुम्हें अपना जीवनसंगी पति बनानेके लिए तैयार हूँ। मैं इसी समयसे तुम्हारी हो चुकी।" ___ “मैं तुम्हारी हो चुकी" इन शब्दोंने उस थके हुए नटके शरीरमें बलशालिनी बिजली दौड़ा दी। वह चौथी बार तार पर चढ़ा और लगभग पाँच गज चलकर तारको हिंडोलेके समान हिलाने लगा और साथ ही दोनों हाथोंसे पटा खेलने लगा। दर्शकगणोंकी तालियोंसे आकाश गूंजने लगा। इसके बाद वह आगे बढ़ा और तार पर अद्भुत नृत्य करने लगा। इस समय सबकी दृष्टि उसके पैरोंमें स्थिर हो रही थी; परन्तु स्वयं उसकी दृष्टि एक और ही दृश्य देख रही थी। राजमहलसे थोड़ी ही दूर पर किसी गृहस्थका सुन्दर घर था। उसमेंसे एक अलौकिक रूपलावण्यवती युवती शीघ्र गतिसे बाहर निकली और एक फटेहाल परन्तु युवा साधुके सामने खम होकर कहने लगी "भगवन् , अपने चरणोंकी रजसे मेरे घरको पवित्र कीजिए और शुद्ध अन्नजल ग्रहण करके मुझे भाग्यशालिनी बनाइए ।" साधु चुपचाप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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