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उसके पीछे चलने लगा और युवती के घरकी पौरमें जाकर खड़ा हो गया। इतने में वह युवती भीतर गई और एक सोनेके थाल में तरह तरहके पक्वान्न सजाकर ले आई तथा उन्हें स्वीकार करनेके लिए साधुसे विनती करने लगी। तार पर नृत्य करता हुआ नट देखता है कि वह साधु न तो ऊँची दृष्टि करता है और न उस पक्वान्नको ग्रहण करता है । इसके बाद वह नीची दृष्टि किये हुए यह कहकर मन्दगति से लौटने लगा कि - " हम सर्वसंगत्यागियोंके लिए पौष्टिक आहार लेना वर्जित है । यदि कोई नीरस लघु भोजन होता तो कदाचित् ग्रहण कर लिया जाता ।
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नट सोचने लगा-“कैसे आश्चर्य की बात हैं कि एक युवा है और दूसरी युवती है। ऐसे एकान्तस्थानमें कि जहाँ और कुछ नहीं तो एक छुपी नजर से देख लेनेमें कोई रुकावट नहीं थी, इस साधुने सामने ऊँची दृष्टि करके भी न देखा ! यह अनुपम सुन्दरी जिसके शरीरमेंसे यौवनका मद छलका पड़ता है- प्रार्थना कर रही है और अतिशय नम्र हो रही है; पर इस युवाने न उसकी ओर देखा और न अन्नको ही स्पर्श किया। इसके चित्तकी दृढता और स्वाधीनताका कुछ ठिकाना है ! कहाँ इसकी निस्पृहता और कहाँ मेरी लालसा ! कहाँ इसकी आत्मतुष्टि और कहाँ मेरी विभाववृत्ति ! कहाँ इसकी सम्पूर्ण शान्ति और कहाँ मेरी क्षणक्षण में हिंडोलेसे होड लगानेवाली भ्रान्ति ! धन्य है ! करोड़ों बार धन्य है इस पुरुषसिंहको !.... परन्तु, क्या मैं भी पुरुष नहीं हूँ? क्या मैंने केवल छह महिनेही में कठिनसे कठिन विद्या प्राप्त नहीं की है ? तब फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि ऐसी अडोलवृत्ति प्राप्त करनेकी योग्यता मुझमें नहीं है ? क्षणिक इन्द्रिय-भोगोंके लिए यदि मैं अटूट धन, उच्च कुल और चित्तकी
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