Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 13
________________ रूपलावण्यवती, उच्चकुलकी कन्याके साथ तेरा पाणिग्रहण करा दूंगा। परन्तु उसके सारे प्रयत्न निष्फल हो गये। जब देखा कि पुत्रका चित्त ठिकाने नहीं है-बिलकुल परतंत्र हो रहा है, तब उसने कुछ समयके लिए इस विषयकी चर्चा ही छोड़ दी और अवसर मिलने पर उसके समवयस्क मित्रोंके द्वारा समझाने बुझानेका निश्चय किया। एलाकुमारने पिताके और मित्रजनोंके समझाने बुझाने पर कुछ भी ध्यान न दिया। एक दिन उसने किसी बहानेसे नटको अपने कोठेमें बुलाया और लाखों मुवर्णमुद्राओंके बदले उसकी पुत्रीके हाथकी याचना की! जैसा कि ऊपर प्रकट हो चुका है, इस याचना और लालचके सम्मुख उस स्वाभिमानी नटने बहरे कान कर लिये और पुत्रीकी खुदपसंदगी पर सारी बातें छोड़ दीं। अब एलाकुमार नटपुत्रीके निकट गया है और कदाचित् पाठकोंका चित्त भी उस असाधारण चित्ताकर्षिणी, भुवनमोहिनी सुन्दरीकी बातचीत सुननेके लिए तड़प रहा होगा। अच्छा तो आइए, हम सब उसके मार्मिक शब्दोंके सुननेका प्रयत्न करें। इलावर्धन नगरके बाहर मैदानमें एक तम्बू खड़ा है । उसके एक कौनेमें वह नटपुत्री अपने स्वयं कल्पना किये हुए एक नवीन प्रकारके नृत्यका अभ्यास कर रही है। एक बेजान पहचानके पुरुषको अपनी ओर आता देखकर उसने नत्य बन्द कर दिया। समझा कि कोई धनी पुरुष अपने जल्सेका निमन्त्रण देनेके लिए आया है, इस लिए उसे सत्कारपूर्वक आसन देकर आप सामने बैठ गई और आगमनका कारण पूछने लगी। एलाकुमारने डरते डरते सत्र बातें प्रकट कर दी और अन्तमें कहा-" सुन्दरी, इसके पहले कि तुम मुझे कुछ उत्तर दो मेरे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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