Book Title: Jain Gitavali
Author(s): Mulchand Sodhiya Gadakota
Publisher: Mulchand Sodhiya Gadakota

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Page 36
________________ १६ हांहां वे कि हूं वे ॥ टेक ॥ अष्ट कर्म की फौजें आहे ज्ञान खड़ग ले धावे वे ॥ पंच महाव्रन, पांचौं समिती तीनों गुप्ति निभावै वे ॥ १ ॥ दुर्धर तप व्रत बारह माडै करम की धूल उड़ावे वे ॥ बाइस परीषह आपुन माड़े क्षमा की ढाल बनावे वे ॥ २ ॥ पंच परावर्तन को चूरे लोक शिखरको धावे वे ॥ छिंगनी छगन ललितपुर लल्ले कारीकमल बसावे वे ॥ ३ ॥ देवीदास गुपाल दिगोड़े जिनमत गारी गावे वे ॥ हीन वुद्धि अरु कवि लघुताई बुधजन शोध मिलावे वे ॥ ४ ॥ ( १४ ) ("हांहां वे हूंहूं वे” की चाल व्याहुमें) अव की बेलाँ अवसर पायौ फेर न यौ भव पावे वे, हांहां वे कि हूंहूं वे ॥ टेक ॥ बसौ अनादि निगोद मांहि तूं बहुविधि दुख भुगतावे वे ॥ तहाँ तें निकसन बहुत कठिन है तालीकाक समावे वे ॥ १ ॥ एक श्वासमें अठदश बारी जामन मरण लहावे वे ॥ छ्यासठ सहस तीनसौ छत्तिस अन्तरमुहूर्त धरावे वे ॥ २ ॥ एक प्रदेश अनन्त भाग की सूक्ष्म देह कहावे वे ॥ इक अक्षर के भाग बरावर तच तूं ज्ञान लहावे वे ॥ ३ ॥ खंघरु पुलवी देह जीव आवास पंच भरमावे वे ॥ इक इकमें हैं जीव अनन्ते जन्म मरण दुख पावे वे ॥ ४ ॥ यों निगोद दुख

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