Book Title: Jain Gitavali
Author(s): Mulchand Sodhiya Gadakota
Publisher: Mulchand Sodhiya Gadakota

View full book text
Previous | Next

Page 98
________________ ७८ ( ९० ) गीत ( गांस्त्र सभा के समय ) देव धर्म गुरु को भजौ हो श्रातम ज्ञानी ॥ टेक ॥ देव छयालिस गुण भरे सव रतन अमानी ॥ दोष विवर्जित रूप या छवि नैन हरानी ॥ १ ॥ तन परमौदारीक है लोकालोक लखानी ॥ युगपत काल अनन्त की देखन सब जानी || २|| सूरज कोटि सु चन्द्रमा कोड़ा कोड़ानी ॥ दीपत तिनकी मन्द है जिन परम प्रमाणी ॥ ३ ॥ रुधिर धवल मलमूत्र है नहिं खेद निशानी ॥ भवि जीवन हितकारने भाषी जिनवानी ॥ ४ ॥ जीव दद्या ता में कही सब दोष विहानी || परम पुरुष पीवें तहां वचनाम्बुज पानी ॥ ५ ॥ सुरपति नर खगपनि तहां राजा अरु रानी ॥ सुन श्रीजी के वैन को होगये सरधानी ॥ ६ ॥ चार संघ मुनि अर्जिका श्रावक श्रावकानी | हिरदें हरष वढावही धनि ते भवि प्राणी ॥ ७ ॥ ऐसे देव दयाल के चरणन शिर लानी ॥ गिरवर को दीजे अवै सेवा सुखदानी ॥ ८ ॥ ( ९१ ) गीत ( शास्त्र सभा के समय ) चेतन अव निज कारज जानौ ॥ टेक ॥ तुम्हरौ कारज है तुमही में सो किमि करत भुलानौ ॥ तुम्हरौ पथ

Loading...

Page Navigation
1 ... 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117