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( ९० ) गीत ( गांस्त्र सभा के समय )
देव धर्म गुरु को भजौ हो श्रातम ज्ञानी ॥ टेक ॥ देव छयालिस गुण भरे सव रतन अमानी ॥ दोष विवर्जित रूप या छवि नैन हरानी ॥ १ ॥ तन परमौदारीक है लोकालोक लखानी ॥ युगपत काल अनन्त की देखन सब जानी || २|| सूरज कोटि सु चन्द्रमा कोड़ा कोड़ानी ॥ दीपत तिनकी मन्द है जिन परम प्रमाणी ॥ ३ ॥ रुधिर धवल मलमूत्र है नहिं खेद निशानी ॥ भवि जीवन हितकारने भाषी जिनवानी ॥ ४ ॥ जीव दद्या ता में कही सब दोष विहानी || परम पुरुष पीवें तहां वचनाम्बुज पानी ॥ ५ ॥ सुरपति नर खगपनि तहां राजा अरु रानी ॥ सुन श्रीजी के वैन को होगये सरधानी ॥ ६ ॥ चार संघ मुनि अर्जिका श्रावक श्रावकानी | हिरदें हरष वढावही धनि ते भवि प्राणी ॥ ७ ॥ ऐसे देव दयाल के चरणन शिर लानी ॥ गिरवर को दीजे अवै सेवा सुखदानी ॥ ८ ॥
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गीत ( शास्त्र सभा के समय )
चेतन अव निज कारज जानौ ॥ टेक ॥ तुम्हरौ कारज है तुमही में सो किमि करत भुलानौ ॥ तुम्हरौ पथ