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तुमही को शोभित ज्या जल पय के थानो॥१॥ तुम सब राजन के हौ राजा सो अच वेग पिछानौ ॥ तुम अधिपति भूपति चक्रेश्वर निज सम्पति सुख मानौर। तुम्हरी रूप तुम्ही को शोभित ज्यों उदयाचल भानी ।। तुम में हम में सब सिद्धन में भेद कळू नहिं मानौ ॥३॥ तुम्हरौ रूप अनन्त चतुष्टय तुम गुण ज्ञायक ज्ञानौ ।। तुम पंडित कवि शूर शिरोमणि तुम सब भीतर स्थानी ॥४॥ तुम सब कम हतन के कारण का तो अधिको नानौ ॥अब के अवसर दाव मिली है कोटा रतन समानी ॥५॥ सो नाहक खोनो मनि भाई फिर पीछे पछतानौ।। तुम सज्जन सरदार मोक्ष सुख यही तुम्हारी थानौ ॥६॥ ताको शीघ्र करो तुम प्रापत होवे भव दुख हानौ । तातं गिरवर मन वच तन करि धरि जिन वच सरधानी ॥७॥
गीत (शास्त्र समा में) भले भज नामारे पंच परमेष्ठी देवा ।। टेक ।। इन परमेष्ठी रूप विचारोधारौ गुन उर भेवा ॥ पहिले भजलो गुणहि छयालिस श्री अहंत कहेवा ॥१॥ दूजे सिद्ध प्राठगुण वन्दों प्रानन्दों हरषेवा ॥ पुनि तीजे प्राचारज गुरुवर छत्तीसों गुण लेवा ॥ २॥ उवझायाजी चौथे वन्दों जे पच्चिस गुण वेवा।। पंचम साधु शिरोमणि वन्दों अठविस गुण साधेवा ॥३॥ छट्टे जिन ागम मन धरिये