Book Title: Jain Gitavali
Author(s): Mulchand Sodhiya Gadakota
Publisher: Mulchand Sodhiya Gadakota

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Page 85
________________ ६५ दुखदाई ॥ श्री चरणोदक अंग लगायौ कंचन देह बनाई || दूसरा क्या जाने भाई ॥ २ ॥ सीता शील ध्यान निस वासर प्रभु चरणन लौंलाई ॥ जब ही अग्नि कुंड में परियौ सागर नीर बहाई ॥ दूसरा क्या जाने भाई ॥ ३ ॥ कहत खुमान लाज रह मेरी तुम त्रिभुवन के राई | अष्ट करम रिपु पिंड गहौ है तासें लेहु बुडाई ॥ दूसरा क्या जाने भाई ॥ ४ ॥ ( ७५) ( दादरा - हरसमय ) मोरी तो मन मोरौ साखी गढ़ गिरनारवे ॥ होरी मैं खेलन जैहों जहां मुनिराज ॥ टेक ॥ मुक्त रमन में मोरो साखी मचरहै ख्यालवे || चंदनकी पिचकारी छूटे ज्ञान गुलाल ॥ १ ॥ दशलक्षण कौ बागौ पहिने श्री मुनिराज ॥ रत्नत्रय की माला पहिनें तप को करें प्रकाशवे ॥ २ ॥ श्रदीश्वर से करों बीनती जोरों दोई हाथ वे ॥ मोरौ तो मन मोरौ साखी गढ गिरनारवे ॥ ३ ॥ ( ७६ ) ( दादरा - हरसमय ) मत वरजौ मोरी माई हमको गिरनारी को जाने दो, मत छेड़ो मोरी ॥ टेक ॥ बाजत ताल मृदंग मधुरि ध्वनि अलगोजा सन्नाई, अरी मा अलगोजा सन्नाई ॥ १ ॥ सम

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