Book Title: Jain Gitavali
Author(s): Mulchand Sodhiya Gadakota
Publisher: Mulchand Sodhiya Gadakota
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७४
(गीत-गास्त्र समय) अपनौ रूप निहारियौ भला चेतन प्यारे ।। तुम तो चारों गुणभरे त्रिभुवन पति वारे ॥ टेक ॥क्रोध कपट छल लोभ जे पुद्गल परजारे ॥ विपय कपाय दुखी महा तुमसे सव न्यारे ॥१॥ सांख्यमती, शिव, मस्करी क्षणकी वटपारे । बौधमती मासानियां जे पट मत वारे ॥२॥ अपनी २ सिर करें दुर्गति दातारे ॥ एक जैनमत एन है शिव सुख करतारे ॥ ३॥ वपुसंसार असार जे दुख सुख पतियारे॥पूरण गलन स्वभाव तन जग अधिर लखारे॥४॥ सब जग भीतर जानिये घट देखनहारे ॥ इक चेतन सब ऊपरै निश्चय व्यवहारे ॥५॥ खोटा २ सब कहें कोई खोटा ना रे ॥ गिरवर है खोटा महा कर जीव दयारे ॥६॥
(८७)
(गीत-हरसमय) मैं तो कैसी करूं कहां जाऊं मोरी गुइयां (सखी) सो पिया तो गये गिरनारी को ॥ टेक ॥ व्याहन आये निशान घुमाये करी वरात तयारी को. मैं तो०॥१॥ छल इक भयौ हरि पशु घिरवाये उन तप लीन्हों ब्रह्मचारी को. मैं तो॥२॥ पिय सँग जाय तपस्या लीनी उग्रसैन

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