Book Title: Jain Gitavali
Author(s): Mulchand Sodhiya Gadakota
Publisher: Mulchand Sodhiya Gadakota

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Page 44
________________ २४ हौ ॥ लख चौरासी योनिमें भटके बहुत धरे तन जाय, सुनत हो ॥१॥ गर्भ निवास सहे दुख भारी सो तूं सब विसराय, सुनत हो ॥ बालापन ख्यालनमें खोयो तरुणपने त्रिय भाय, सुनत हो॥२॥ कुगुरु कुदेव कुवृष नित सेयौ, कीन्ही तीन कषाय, सुनत हो ॥ जय दुख पावे तब जिन ध्यावे सुखमें सुधि विसराय, सुनत हो ॥ ३ ॥ मूलचन्द विनवै सुन चेतन जिनवर नाम सहाय, सुनत हौ । निशदिन भजन करौप्रभुजीका पावी शिवसुख दाय, सुनत हौ ॥४॥ (२५) (“ सुनत हौ" की चाल, व्याहमें ) जगते भगते सोइयौ चेतन राय,आवै कुमति कुनारि सुनत हौ प्राव कुमति कुनारि ॥ टेक ॥ सुमति सुनारी अरज करत है लेव चेतन चित धार, सुनत हो ॥ १॥ बा दारी पूरी फरफन्दन तुम पर डारै जार, सुनत हौ ॥ ॥२॥ दुखिया करे अनादि काल तें मोह की पाँस पसार सुनत हो ॥ ३॥ वाके प्रेम भूल रहे आपा भरमत हो गति चार, सुनत हो ॥ ४॥ जो सुख चहौ तजौ वाको सँग क्यों सेवौ व्यभिचार, सुनत हौ ॥५॥ निजानन्द निजरस में पागौ लेहु सुमति हिय धार, सुनत हो ॥६॥

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