________________
को अमन बनाने की बात को ले, ध्यान साधना के मूल लक्ष्य में कोई अन्तर नहीं आता। यदि कही अन्तर है तो वह उन पद्धतियों में है, जिनके आधार पर चित्तवृत्तियों का निरोध या मन को अमन बनाने की साधना की जाती है।
यह सत्य है कि आज हम सब तनाव में जी रहे हैं, किन्तु सभी का लक्ष्य तनाव से मुक्ति पाना है। इस प्रकार यदि हम देखे तो आज विश्व की सभी साधना-पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य तनाव का निराकरण है। इस तरह ध्यान और साधना की चाहे अनेक पद्धतियाँ प्रचलन में हो, किन्तु उन सबका लक्ष्य तो एक ही है। चाहे लक्ष्य चित्तवृत्तियों का निरोध हो या निर्विकल्पसमाधि हो अथवा जैन दर्शन की भाषा में योग से आयोग की यात्रा हो, मूल बात केवल इतनी ही है कि मन की भाग-दौड़ कम हो एवं आकांक्षाओं और इच्छाओं का स्तर निम्नतम बिन्दू तक आये । प्राचीनकाल से लेकर आज तक ध्यान की समग्र साधनाओं का लक्ष्य मन को अमन बनाना ही रहा है। जैन परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र ने मन के चार स्तर- (1) विक्षिप्त मन, (2) यातायत मन, (3) शिलिष मन और (4) सुलीन मन बताये है और ध्यान साधना का लक्ष्य सुलीन मन ही माना गया है। सुलीन मन वह है जहाँ मनोवृत्तियों का लय हो जाता है, इच्छा, आकांक्षा और वासना का विलय हो जाता है। इसी प्रकार बौद्धदर्शन में मन के स्थान पर चित्त के चार स्थान बताये गये हैं- (1) कामावचर, (2) रूपावचर, (3) अरूपावचर, (4) लोकोत्तर । इनमें लोकोत्तर चित्त राग, द्वेष और मोह से रहित विकल्पशून्य अवस्था है। लोकोत्तरचित्त का विकास तभी होता है, जब वासनाएँ विलीन हो जाती है। इसी क्रम में योगदर्शन में चित्त की पाँच भूमियाँ या स्तर बताये गये हैं- (1) क्षिप्त, (2) मूढ़, (3) विक्षिप्त, (4) एकाग्र और (5) निरुद्ध । इन पाँचों भूमियों में अन्तिम भूमि तो निरूद्धचित्तभूमि ही है। निरूद्धचित्तभूमि वह है जहाँ सभी वृत्तियाँ लय हो जाती है। चित्त विकल्प शून्य बन जाता है। इस प्रकार हम देखते है कि ध्यानमार्ग की इन विभिन्न साधना पद्धतियों के मूल लक्ष्य में कहीं कोई महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार योगदर्शन में एकाग्र चित्त और निरूद्धचित्त में अन्तर किया गया है, उसी प्रकार जैन परम्परा में ध्यान और व्युत्सर्ग में अन्तर किया गया है। जैन परम्परा के अनुसार ध्यान चित्तवृत्ति की एकाग्रता का नाम है और व्युत्सर्ग चित्त वृत्तियों के विलय की अवस्था है। जिसे हम निर्विकल्प समाधि के रूप में व्याख्यायित कर सकते है।
विकल्पों और वासनाओं का जन्म चित्त या मन में होता है और वे विकल्प
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org