Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth Author(s): Shitalprasad Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia View full book textPage 7
________________ अध्याय पहला। ।५ संतानें मूर्ख हों व विद्वान माता पिताकी संताने विद्वान हों। क्योंकि हरएक जीव अपने २ भिन्न २ संस्कारको लिये हुए जन्मता है। पूर्व जन्मके संस्कार वश कोई बुद्धिमान बालक एक दफे पढकर या देखकर याद कर लेते है, कोई २ बालक ऐसे सुने गए है जो बिना पढाए संस्कृत, पाली बोल्ने है. व गणित करते है, जरामा निमित्त पानेपर शीघ्र ही बहुतसे बालक अच्छे शिक्षित होजाते हैं जैसे प्रवीण गवैये, शिल्पकार, चित्रकार मादि । इसमे कारण पूर्व जन्मका संस्कार ही है। कविगण बहुधा संस्कारित ही होते है । आत्माकी सत्ता जडसे भिन्न माने विना पूर्वके संस्कार नहीं पाये जा सक्त है। किन्हीं २ वालकोंको पूर्व जन्मकी बातोंका म्मरण भी होना सुना जाता है । यह भी सुनने में आता है कि कोई व्यंतर देव किसी मानवको प्रगट होकर कहता है कि हम पहले जन्मम अमुक मानव थे। बडी वात विचारनेकी यह है कि जड वस्तुओंमें चेतनशक्ति विलकुल प्रगट नहीं है। अर्चननता भलेप्रकार सिद्ध है. तब उनके द्वारा ऐसी शक्ति पैदा हो जावं जो उनके मूल स्वरुपम नहीं है यह वात न्यायमार्गसे विपरीत है। हरक कार्य अपने मूल कारण या उपादान कारणके अनुसार होता है, जैसे मिट्टीस मिट्टीके वर्तन, सोनेसे सोनेके गहने, लोहेसे लोहेके वर्तन बनते हैं. मिट्टीसे चाटीके वर्तन नहीं बन सक्त तथा जैसे गुण मूल पदार्थमं रहते है वैसे ही गुण उसके बने काममे प्रगट होते है। यदि जडम आत्मा बनता तो जडमे चेतनपना प्रगट होना चाहिये था। मो किसी भी तरह नहीं दिखता है। इसलिये जो लोग जडसे अलग किसी अजर अमर चेतनताधारी पदार्थको मानते है उनकी बातPage Navigation
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