Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 26
________________ __ अध्याय दूसरा। [४५ भावका बहुत जोर होता है तब इस प्राणीको धर्मकी तरफ, सत्य आत्मकल्याणकी तरफ रुचि नहीं होती है। यह ससारके विषयभोगोंका ही प्रेमी बना रहता है। वैराग्य भाव व शुद्ध आत्माका श्रद्धान नहीं जाता है । गह बनानी होकर अपने सत्य म्वभावको भृले रहता है। देव व कर्मका उदय सदा एकमा नहीं रहता है । जब कभी दर्शनमोहनीय कर्मका उदय मंद पडता है तब कुछ २ लक्ष्य धर्मकी तरफ जाता है। ज्ञानके साधक मत्य आगमवे. अभ्याससे व सत्य धर्मापदेगक गुरुक उपदेश नब कुछ समझ बहती है और यह अभ्यासी तत्वोंका वारबार मनन करता है, अपने ज्ञान व वीर्यके पुरुषार्थको कामम लेता है तब मियान्य भाव पल्ट कर सम्यक्त गुण प्रकाश हो जाता है। सम्यक्त गुणका प्रकाश होना एक और परमवाल्याणकारी पुरुषार्थका लाभ हो जाना है । जय तक सम्यक्त गुण प्रगट नहीं होता है तबतक मिथ्यात्व भाव विभाव बना रहता है। इस मिथ्यात्व भावके कारण संमारी आत्मा अपनको मृले रहता है, मोह ममतामे फंसा रहता है। चाग्त्रि मोहनीय-कर्म चारित्रको या गात भावको घात करता है तब इस कर्मक उदयमे क्रोध, मान, माया, लोभ चार कपायोंमेसे कोई कपाय भावको मैला बनाय रहती है। ये चारों ही कपाय आत्माकी वैरी है। इनका भी उदय मदा एकमा नहीं रहता है। इन कपायोंके उदयका असर चार तरहका होता है-तीव्रतर, तीव्र, मंद, मंदतर । दर्शन मोहनीय व चारित्र मोहनीय दोनोंका उदय आत्माके भावोंको विकारी व मतवाला बना देता है। भीतरी दैव यही बाधक है । ज्ञान, दर्शन, वीर्य, गुण

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