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७२] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ ।।
९ नोकषाय-कुछ कपाय जो कपायके उठ्यके साथ काम करे। १-हास्य-जिसके उदयसे हास्य प्रगट हो। २-रति - जिसके उढयसे इन्द्रियों के विषयोंमे राग हो। ३-अति-जिसके उदयसे विषयोंमें अरुचि हो-द्वेष हो । ४-क्रोध-जिसके उदयसे क्रोधभाव हो।। ५-भय-जिसके उदयसे उद्वेग या भय हो। ६-जुगुप्सा–जिमके उदयसे दूसरेसे रानि या घृणा हो। ७-स्त्रीवेद-जिसके उदयसे स्त्री संबन्धी कामभाव हो। ८-पुवेद-जिसके उदयसे पुरुष सम्बन्धी कामभाव हो। ९. नपुंपकवेद-जिमके उदयसे स्त्री पुरुपके मिश्र कामभाव हो।
४-आयु कर्म–नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव इन चार गतियोंमें रोकनेवाले चार आयुकर्म है। एकेद्रियसे पचेंद्रिय पशु तक तिर्यच गतिमे हैं। ९३-नामकर्म
४-ति-जिसके उदयसे नारक, तिर्यच, मनुष्य, देवगतिमें जावे व वहांकी अवस्था प्राप्त करे।
५-जाति-जिसके उदयसे एकसमान दशा हो । वे पांच हैंएकेंद्रिय, द्वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौन्द्रिय, पंचेंद्रिय ।
५-शरीर-जिसके उदयसे शरीरकी रचना हो। पांच शरीरोके योग्य वर्गणा ग्रहण हो। औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मण। मनुष्य, तिर्योंका स्थूल शरीर औदारिक होता है । देवनारक्यिोंका स्थूल शरीर वैक्रियिक होता है । आहारक दिव्य शरीर