Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 35
________________ Ver-ra. . . . . . . . . . .ran ६८] जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । नीच गोत्र, असाता वेदनीय कर्मका बंध होगा। जब शुभ भाव होगा सम शुभ आयु, शुभ नाम, उच्च गोत्र व सातावेदनीय कर्मका बन्ध होगा किंतु चार घातीय कर्मका बंध हरएक शुभ या अशुभ भाव आत्माके स्वाभाविक शुद्ध भावका घातक है । इसतरह हरएक प्राणी हरएक दशामें कभी सात प्रकार कभी आठ प्रकार कर्माका बंध किया करता है। अपने ही अशुद्ध भावोंसे दैवका स्वयं संचय होजाया करता है। इन ही अशुम व शुभ भावोंको वत नेके लिये जैन सिद्धांतमें लेश्या गळ काममें लाया गया है जिसका अर्थ है लेया। “कर्मस्कन्धै. आत्मानं लिम्पति इति लेश्या ", अथवा “लिप्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या" जिसके द्वारा आत्मा काँसे लिपे या बंधे या संसर्ग पाये वह लेण्या है। मन, वचन, या कायकी प्रवृत्तिको जो कपायसे रंगी हो या न रंगी हो लेश्या कहते है। कषायके उदयके छ भेद है-तीनतम, तीव्रतर, तीव, मन्द, मन्दतर, मदतम । इसलिये लेझ्याके भी छ भेद है-कृष्ण, वील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल । काला, नीला, भूरा (कापोत), ये तीन रंग अशुभ भावोंके दृष्टात है। अशुभतम कृष्ण, अशुभतर गील व अशुभ कापोत लेश्या है। पीत पद्म (लाल), शुल्ल ये तीन शुभ भावोंके दृष्टात हैं। मन्दकपायरूप शुभ भाव पीत है। मंदतर कक्षाय शुम भाव पद्म है, मन्दतम कपायभाव या कपाय रहित योग शुक्ल लेश्या है । इन लेश्याओंके भावोंको समझनेके लिये एक दृष्टांत प्रसिद्ध है। छः लेश्याके मावोंको रखनेवाले छ. आदमी एक वनमें यामके वृक्षको देखते है तब कृष्ण लेश्यावाला जडमूलसे वृक्षको काट

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