Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 48
________________ Seawar.varsunt mararamicMuml.se १०.] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । नं०५-देशविरत २८ देवसहित, २९ देव तीर्थ सहित ऐसे २ स्थान होंगे। नं० ६-~-प्रमत्त २८ देवसहित, २० देव तीर्थ सहित, ऐसे २ स्थान होंगे। नं० १-अप्रमत्त २८ देवमहित, २९ देव तीर्थ सहित, :३० आहारक सहित, ३१ आहारक तीर्थ सहित ऐसे ४ स्थान होंगे। ___ नं०८--अपूर्वकरण ७ वेके ४ बंधस्थान तथा एक या ऐसे ५ बन्धस्थान होंगे। नं० ९ अनिवृत्तिकरण एक यशका स्थान होगा। नं० १० सूक्ष्मसांपराय यशका एक स्थान होगा। नं० ७ गोत्रकर्म-इसके दो भेद हैं-१ नीच गोत्र, २ उच्च गोत्र । एक जीव एक समयमै ढोमेसे एक स्थान कोई वाधेगा। सं० ८ अन्तरायकर्म-इसके ५ भेद हैं-५ प्रकृतिका स्थान मिथ्यात्व गुणस्थानसे १० वें गुणस्थान तक बन्ध होगा। इस तरह ८ कर्मोंकी उच्च प्रकृतियोंके बन्धस्थान जानने योग्य है। नीचे यह . नक्शा दिया जाता है जिससे विदित होगा कि १५ वन्ध योग्यः प्रकृतिमेंसे हरएक गुणस्थानमें एक जीव एक समय कितनी प्रकृतियांका चन्ध करेगा .

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