Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 47
________________ अध्याय तीसरा। पर्याप्त, प्रायेक, स्थिर अस्थिानसे एक, शुभ अशुभमेंसे एक, दुर्भग्ट, अनादेय, यश अयास एक. तिथंचगति, तिचगत्यानुपूर्वी, २ इन्द्रिय, औदारिक शरीर. औदारिक अंगोपाग, हुडक संस्थान, असंपाल मंइनन, दम्बर, अप्रशम्न विहायोगति, उच्छ्वाम, परघात, इनका न्य २ इन्द्रिय पर्याप्त सहित होगा। नं. २ प्रकार-उपरोक्त प्रकारमेंसे २ इन्द्रिय निकाल कर तीन इन्द्रिय मिलानसे २० का बन्ध तीन इन्द्रिय पर्याप्त महिन होगा। नं. ३ प्रकार-उपरोक्त २९ मेसे तीन इन्द्रिय निकालकर चौडन्द्रिय मिलानसे २९ का बंध चौइन्द्रिय पर्याप्तके सहित होगा । नं.४ प्रकार--उपरोक्त २९ में चौडन्द्रिय निकालकर पंचन्द्रिय मिलानसे २० का बंध पंचन्द्रिय पर्याप्त तिर्यव सहित बंध होगा परन्तु यहां विशेषता यह है कि स्थिर अस्थिर से एक, सुमग दर्भगमसे एक, शुभ अशुभमेंसे एक, आदेय अनादेयमें से एक, या अयशसे एक, ६ संस्थानमसे एक, ६ संहननमेसे एक, सुस्वर हम्वरमसे एक. अप्रगस्त प्रगस्त विहायोगतिमेसे एक, किसीका कब किसी जीवके होगा। नं०५ प्रकार-उपर्युक्त २९ मेसे तिर्यचगति, तिर्यच गत्यानुपूर्वी निकालकर मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी मिलानेसे २९ का बंध मनुष्यपर्याप्ति सहित होगा। नं०६ प्रकार-९ तैजस आदि त्रस, बादर, प्रत्येक, पर्याप्त स्थिर अस्थिरमेंसे एक, शुभ अशुभमेसे एक, सुभग, आदेय, यश

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