Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 45
________________ ९२ ] जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ । कथन अनेक प्रकारके जीवोंका समुच्चयरूपसे है। एक जीव एक प्रकारके भावसे इतने कर्म नहीं बांधता है । आठों प्रकारके मूल कर्मोंकी उत्तरप्रकृतियोंमें एकसाथ एकममय बंधनेवाले समूहको स्थान कहते है | उनका कथन नीचे प्रकार है ( १ ) ज्ञानावरण ५ भेट हैं। पांचोंका एक स्थान है । पाचों ही प्रकृतिया एकसाथ दावे गुणस्थान तक बरावर बंधती रहती हैं | -५ का स्थान १० वें तक । (२) दर्शनावरणके ९ भेद है, इसके तीन स्थान हैं९-६-४ नौका बंध दूसरे गुण० तक फिर स्त्यानगृद्धि निद्रा निद्रा, प्रचला प्रचला. तीन निद्रा कर्म विना छ का बंघ अपूर्वरण के प्रथम भाग तक फिर निद्रा प्रचला विना चारका ही वंघ दसवें गुणन्यानतक होगा । ९ का (२) तक ६ का ८ तक ४ का १० तक । (३) वेदनीयके २ भेट हैं एक समय साता वा असाता दोमंसे १ यही बंध होता हैं। छठे गुण० तक कभी माता कभी असाताका फिर १ साताका ही बंध १३ वे गुणस्थान तक होता है । साता या असाता (३) तक साता १३ तक । ( ४ ) मोहनीय कर्मके बंधस्थान १० दश हैं । २२, २१, १७, १३, ९.५. ४, ३, २, १ । ( १ ) मिथ्यात्व गुण० मे २२ का स्थान ६ प्रकारसे बंधता है - १ मिध्यात्व कर्म + १६ कषाय भय + जुगुप्सा - हास्य रति - या शोक अरति दो युगलमेसे एकका + तीन वेदमेंसे १ का = २२ १ तीन वेद x २ शीलकी अपेक्षा वे छ· प्रकार इस तरह होंगे (१)

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