Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 62
________________ अध्याय तीसरा। [१२९ इस तरह इस अध्यायमें यह भले प्रकार बतला दिया है कि दैव या कर्मोका संचय या वन्ध इस संसारी जीवके अपने अशुद्ध भावोंसे होता है, किस किस गुणस्थान या दर्जे में कितने काँका बंध उदय या सत्व होता है । इससे प्रगट होगा कि यह जीव ही अपने दैवको आप ही बनानवाला है, और आप ही उसका फल भोक्ता है। और ये जीव ही अपने देवको अपने पुरुषार्थसे बदल सक्ता है और नाश कर सक्ता है इस बातको आगे बताया जायेगा। काँका विशेष वंध उदय सत्यका वर्णन श्री गोम्मटसार कर्मकांडजी नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ति कृतसे जानना योग्य है, यहां तो दिग्दर्शन मात्र कराया है । जैन सिद्धान्तमें इस विषयका बहुत गम्भीर वर्णन है, ज्ञानके खोजियोंको उसका मनन करना चाहिये।

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