Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Beneroseneck संघी मोतीलाल मास्टर RSA. RALIA चोमवाला SD PALAIMESANTARVA जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थी LA रेवकश्री ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी । SAMANANAIMAGEMAMALIHAMPIRHATRAP प्रकाशकमूलचन्द किसनदास कापडिया, मालिक दिगम्बरजैनपुस्तकालय-मूरत । "जैनमित्र के ४३३ वर्षका उपहारग्रन्थ । A TARAHARINDIANITAMARTUTINA वीर सं० २३६८ मूल्य-बारह आने। ( Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] क्रम विषय पृष्ठ । क्रम विपय पृष्ठ ३४-गोत्रकमके वधके विशेष ५०-जीवोंके पाच प्रकारके भाव भाव . व भेद प्रभेट १४ ३५-अतरायकर्मके वधके ५१-पारणामिक भाव १४१ विशेप भाव ... ३६-पाप पुण्य भेट ६७ - अध्याय पांचवां। ३७-लेल्या । धर्म पुरुषार्थ । ३८-आठ कमौके उत्तरभेद ६९ | ५२-धर्म पुस्पार्थकी मुख्यता १४२ ३९-पुण्य पाप प्रकृति ७६ ५३-साधुका व्यवार धर्म १४२ ४०-चार प्रकारका बन्ध ७८ | ५५-गृहस्थ धर्म .१४३ ४१-आवाधाकालका नियम ८१ ५५-बारह व्रत ...१४९ ४२-चौदह गुणम्थान ८४ ५६-ग्यारह प्रतिमाएँ .. १५६ ४३-गुणस्थानोंमे प्रकृतिबंध ८८ अध्याय छठा। ४४-गुणस्थानोंम अबन्ध, वधव्युन्छित्ति . ९१ अर्थ पुरुषार्थ। ४५-कर्मोका उदय १०३ | ५७-अर्थ पुरुषार्थ कैसे कर १५९ ४६-गुणस्थानके उदयम्थान १०९५८-उद्यमके छ. प्रकार १५९ ४७-कर्मोकी सत्ता अथवा अध्याय सातवां। उनका सत्य १२१ ४८-आठों कर्मोकी उत्तर काम पुरुषार्थ। प्रकृतियोंकी सत्ता १२३ । ५९-पाचो इद्रियोंके विषयोंका अध्याय चौथा। उपयोग किस प्रकार के १६३ पुरुषार्थका स्वभाव और कार्य। अध्याय आठवां। ४९-पुम्षार्थ द्वारा सचित कर्ममे मोक्ष पुरुषार्थ । परिवर्तन १३१ | ६०-सिद्ध अवस्थाका स्वम्प १६७ शुद्ध करके पढ़इस पुस्तकम पृ० लाईन २१ मे Lifeless Bodies or Dead Bodies की जगह पर Living Bodies पढ । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः। जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ अध्याय पहला। देव व पुरुषार्थकी आवश्यक्ता। मंगलाचरण । वीतराग विज्ञान मय, परमानन्द स्त्रभाव । नमहुँ सिद्ध परमात्मा, त्याग ममत्व विभाव ॥१॥ परम धर्म पुरुषार्थस. साध मोक्ष पुरुषार्थे। अविनागी कृतकृत्यको, व्याऊं कर पुरुषार्थ ॥२॥ कर्म दैवकी सैन्यको. धर्म खड्गसे चूर । सिद्ध किया निज कार्यको, नमहं होय अघ दूर ॥३॥ जगतमे देव और पुरुषार्थ दोनों प्रसिद्ध है। ठेवको भाग्य, अष्ट. कर्मका फल, किस्मत, करणी. तकदीर, fate फट, आदि नामोसे कहते हैं। और पुरुषार्थको उद्योग, प्रयन्न, तदबीर, परिश्रम, उत्सह. कोशिश आदि नामोंसे पुकारते है। जब कोई किमी कामको सिद्ध कर लेता है तब पुरुषार्थकी दुहाई दी जाती है। जब कोई काम बिगड जाता है या विघ्न आ जाता है तत्र देवको याद किया जाता है। दोनों बातें जगतमे प्रचलित हैं। इन दोनों बातोंकी आवश्यक्ता तब ही होगी जब दोनों बातें सिद्ध हो। जो लोग केवल जडवादी है, जो जाननेवाले आत्माको बहसे Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । गया है परन्तु ज्ञान उसको बालपन तकका है। हम एक काल एक ही इन्द्रियसे जानते हैं परन्तु हमको पांचों इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त जानकी धारणा बनी रहती है। यदि केवल जडसे जानना होता तो जाननेक पीछे जानका सचय नहीं रहता। कारण व कार्यका लम्बा विचार ज्ञानी आत्मा ही कर सकता है। एक बालकको भी अनुभव है कि मैं हाथसे छूकर, जवानसे चाखकर, नाकस सूंघकर. आखसे देखकर. कानसे सुनकर जानता हू, शरीरादि द्वार है वे नहीं जानते है. मैं ही कोई जाननेवाला हू जो आख नाक आदिसे जानता हू । आत्मा हगएकक अनुभवमें खूब आ रहा है। किसी भी मुदा या जड पदार्थमे अनुभव या वेदना feeling नहीं होती, कितु सचतन पढाथैम हाती है। क्योंकि जाननेवाला आत्मा शरीरंम है। आत्मा कभी मरता नहीं, शरीर बदलता है। नए पैदा हुए वालकको बहुतमा परला मस्कार होता है। गर्भसे बाहर निकले हुए बालकको भूग्वकी वेदना होती है, वह रोता हे, दूध मिलनेपर संतापी होजाता है । यदि उस कोई सतावे मारे तो दुखी होता है, क्रोधमे भरजाता है। उसमे लोभ व क्रोध झलकते है वह पुराना ही संस्कार है। किसीने उसे सिखाया नहीं। गरीरमे आनेके पहले वह कहीं और गरीरमे अवश्य था। पूर्व जन्मके संस्कारवग एक स्कूलमें पढ़नेवाले बालक व एक ही माताके उढरसे निकले बालक कोई तीव्र बुद्धि रखते हैं कोई मन्द, कोई थोडे कालमे बहुत याद करलेते है कोईको बहुत कालमें भी याद नहीं होता है। मूर्ख माता पिताओंकी संतान बुद्धिमान व विद्वान बन जाती है व विद्वान माता पिताकी संतान मूर्ख देखने में आती है। यह नियम नहीं है कि मूर्ख माता पिताकी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय पहला। ।५ संतानें मूर्ख हों व विद्वान माता पिताकी संताने विद्वान हों। क्योंकि हरएक जीव अपने २ भिन्न २ संस्कारको लिये हुए जन्मता है। पूर्व जन्मके संस्कार वश कोई बुद्धिमान बालक एक दफे पढकर या देखकर याद कर लेते है, कोई २ बालक ऐसे सुने गए है जो बिना पढाए संस्कृत, पाली बोल्ने है. व गणित करते है, जरामा निमित्त पानेपर शीघ्र ही बहुतसे बालक अच्छे शिक्षित होजाते हैं जैसे प्रवीण गवैये, शिल्पकार, चित्रकार मादि । इसमे कारण पूर्व जन्मका संस्कार ही है। कविगण बहुधा संस्कारित ही होते है । आत्माकी सत्ता जडसे भिन्न माने विना पूर्वके संस्कार नहीं पाये जा सक्त है। किन्हीं २ वालकोंको पूर्व जन्मकी बातोंका म्मरण भी होना सुना जाता है । यह भी सुनने में आता है कि कोई व्यंतर देव किसी मानवको प्रगट होकर कहता है कि हम पहले जन्मम अमुक मानव थे। बडी वात विचारनेकी यह है कि जड वस्तुओंमें चेतनशक्ति विलकुल प्रगट नहीं है। अर्चननता भलेप्रकार सिद्ध है. तब उनके द्वारा ऐसी शक्ति पैदा हो जावं जो उनके मूल स्वरुपम नहीं है यह वात न्यायमार्गसे विपरीत है। हरक कार्य अपने मूल कारण या उपादान कारणके अनुसार होता है, जैसे मिट्टीस मिट्टीके वर्तन, सोनेसे सोनेके गहने, लोहेसे लोहेके वर्तन बनते हैं. मिट्टीसे चाटीके वर्तन नहीं बन सक्त तथा जैसे गुण मूल पदार्थमं रहते है वैसे ही गुण उसके बने काममे प्रगट होते है। यदि जडम आत्मा बनता तो जडमे चेतनपना प्रगट होना चाहिये था। मो किसी भी तरह नहीं दिखता है। इसलिये जो लोग जडसे अलग किसी अजर अमर चेतनताधारी पदार्थको मानते है उनकी बात Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । भावार्थ-प्रोफेसर विलियम मैकडोंगल अपनी पुस्तक-" फीजिओलजिकल सकोलोजी" में लिखते है-मको मजबूर होकर मानना पड़ता है कि अन्त करणके कार्य किसी एक पदार्थक कुछ काम हैं। यह पदार्थ मगजका कोई भाग नहीं है न यह कोई जड पदार्थ है । किन्तु यह सब जड पदार्थोसे जुदा है। उसे हम एक अमूक पदार्थ या जीव मान सकते है। जहांतक बुद्धिसे विचार किया जाना हे जडसे भिन्न चेतन शक्तिका मानना जरूरी व ठीक जंचता है। केवल हाएक आत्मा जडसे चेतन शक्तिका काम नहीं हो सक्ता है। भिन्नर है। चेतन शक्ति हरएक शरीरधारी प्राणीमें स्वतंत्र व भिन्न २ है या एक किसी ईश्वर या ब्रह्मका अंश है। इस वातपर विचार किया जावे तो यही समझमे आता है कि हाएक चेतन शक्तिधारी आत्माकी सत्ता भिन्न २ है। क्योंकि एक ही जालमें जगतकी आत्माओंमें भिन्न २ भाव या कार्य देखे जाते हैं। ___कोई शांत है तो कोई क्रोधी है, कोई अज्ञानी है तो कोई झनी है, कोई भक्ति करता है, कोई व्यापार करता है, कोई जागता है कोई सोता है, कोई विद्या पन्ता है. कोई विद्या पहाता है, कोई जन्मता है, कोई प्राण त्यागता है, कोई सुखी है, कोई दुखी है. कोई रोता है, कोई हंसता है। यदि एक ही ईश्वर या ब्रह्मके अंग हो तो सब एकरूप रहने चाहिये। यदि ईश्वर शुद्ध व निर्विकार है तो सब प्राणी शुद्ध व निर्विकार रहने चाहिये। यदि ईश्वर अशुद्ध है व विकारी है तो सब अशुद्ध व विकारी रहने चाहिये । यदि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय पहला। ईश्वर शुद्ध है परन्तु उसका अंग जडसे मिलकर अशुद्ध व विकारी हो जाता है तो ई धरके अशी विकार होनेसे ईश्वर अवश्य विकारी हो जायगा व उमे विकारका फल भोगना पडेगा। ईश्वर एक अमूर्तीक पदार्थ है दममें उमर वण्ड नहीं हो सक्तं । खण्ड या टुकडे जड मुनीक पदार्थक ही हो मक्ते में जो परमाणुओंके बन्धसे बनते हैं। ईश्वर परम शुद्ध निर्विकार ही हो सका है. उसमें स्वयं कोई इच्छा किमी काग कानकी व मिमीको बनानकी व बिगाडनकी नहीं हो मनी है. न वर किसीफ माथ गगद्रेप करता है. वह समदर्गी है. वह जडमें अपना अंग भेज या कल्पना नहीं हो मक्ती है। स्वयं शुद्धसे अशुद्ध वनं या यान संभव नहीं है । इसलिये यही बात ठीक है कि हरएक शरीरमं भिन्न २ आला है। यह लोक जड और चनन पदाधीका अमिट समुदाय है। सके भीतर मी ही पदार्थ मत् है, मढा ही वने लोक जड़ चेतनका रहने । । भूरस न बनते हैं न बिगडत है । केवल मगृह व अनादि हैं। अवस्था ही दरती है । इमलिये यह लोक भी मत है. अनादि अनत है, मात्र अवस्थाओंके बदलनकी अपेक्षा क्या नहीं रहता है। आत्मा हरएक शरीरमें भिन्न २ है तौभी एकसे नहीं विदित होते है। उनके अंतरंग स्वभावमें विचित्रता हे उनके देव क्या है। बाहरी संयोगविचित्रता है। क्रोध, मान, माया, लोभ ये विकारी या अशुद्ध भाव या दोष हैं, क्योंकि इनके होनेपर शानभाव नहीं रहता है तथा साधारणतया सर्व जगत Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । है। उसमेंसे पुराने कार्मण स्कंध गिरते रहते हैं सूक्ष्म कार्मण व नए मिलते रहते हैं । जगतमें कार्मण वर्गणाएं ' शरीर। भरी हुई हैं । उनको संसारो आत्माएं अपने मन, वचन, कायके हलनचलनसे रागद्वेष मोह अशुद्ध भावोंके द्वारा संचय करते रहते हैं। जव अच्छे भाव होते है तब पुण्य कर्मोंका संचय होता है जब बुरे भाव होते है तत्र पाप कर्मोंका संचय होता है । जैसे चुम्बक पापाण लोहेको घसीट लेता है वैसे आत्माके भाव व हलन चलनसे आत्मा कर्म व स्कंधोंको घसीट कर बांध लेता है। वे कर्म स्वयं पककर कुछ काल पीछे झडने लगते हैं तब वे फल प्रगट कर सकते है, उसी फलको कर्मका दैव स्वयं फलता है। या दैवका कार्य कहते हैं। उसी फलसे आत्मामें ___क्रोध, मान, माया, लोभ विकारी भाव होते हैं। उसी फलसे बाहरी अवस्था अच्छी या बुरी होती है या धन, संतान आदि शुभ संयोग या अहितकारी बुरे संयोग मिलते हैं। संसारी आत्माएं अपने ही अशुद्ध भावोंसे अपने दैवको बनाते हैं। यह वस्तुका स्वभाव है। जैसे गर्मीका कारण पाकर पानी स्वयं भाफ बन जाता है, वैसे हमारे भावोंका निमित्त पाकर पाप या पुण्यकर्म स्वयं संचय हो जाता है तथा यह स्वयं गिर भी जाता है। जैसे स्थूल शरीरमे हम निरन्तर हवा लेते हैं, निकालते हैं, सोते जागते, श्वास चलता रहता है। हम पानी पीते हैं, भोजन खाते हैं, हवा, पानी, भोजन शरीरमें जाकर स्वयं पकते हैं व रस, रुधिर, मांस, हाड, वीर्य आदि धातुओंको बनाते Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amrited.nlm.indiaN...........mar.mamiwand अध्याय पहला। । १३० हैं, उनकी यह क्रिया हमारे वुद्धिपूर्वक प्रयत्नके विना ही होती रहती है। वीर्य इनका अंतिम फल या सार है । उस वीर्यकी बदौलत या वीर्यके फलसे हमारा शरीर व हमारे शरीरके अंग उपांग काम करते रहते हैं। जैसे स्थूल शरीरमे स्वयं फल होजाता है वैसे सूक्ष्म कार्मण शरीरमे स्वयं फल होजाता है। कुछ लोगोंका यह मत है कि कोई ईश्वर पाप या पुण्यकर्मका __फल देता हे कर्म स्वयं फल नहीं देसक्ते क्योंकि ईश्वर पलनाता कर्म जड है । इस वातपर विचार किया जावे तो नहीं। यह वात ठीक समझमे नहीं आती है । ईश्वर अमूर्तीक शरीर रहित है, मन वचन काय रहित है, मनके विना यह किसीक पाप पुण्यक सन्बन्धमें विचार नहीं कर सक्ता,. वचनके विना दूसरोंको आज्ञा नहीं देसक्ता. कायके विना स्वयं कोई काम नहीं कर सकता है। वह सत्यढी हे, रागद्वेषसे रहित है । वह यदि जगतके अपूर्व जालम पड़े तो वह स्वय संसारी होजावे, विकारी होजावे। कुछ लोग पाप पुण्य कर्मका संचय भी नहीं मानते है, उनके मतसे ईश्वरको ही सब प्राणियोंक भले बुरेका हिसाव रखना पड़ता है। अमूर्तीक व शरीर रहित ईश्वरसे यह काम बिलकुल संभव नहीं है। यह सबका दफ्तर कैसे रख सकता है, यह बात कुछ भी समझमे नहीं आती है । दोनों ही बातें ठीक नहीं है कि पाप पुण्य कर्मका संचय होनेपर वह ईश्वर उनका फल भुगतावे या संचय न होनेपर ही वह ईश्वर सुख दुख पैदा करे । ईश्वरमें दयावानपना भी व सर्वशक्तिमानपना भी माना जाता है, तब ऐसा ईश्वर जिन जगतके प्राणियोंका Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ | CHA 131 · है । जितना २ कर्मका परदा हटता जाता है, ज्ञान स्वभाव प्रगट होता जाता है। एक बालक जब विद्या पढने बैठता है तब बहुत कम जानता है, पढते २ या पढने के पुरुपार्थसे अज्ञानका परदा हटता जाता है ज्ञान बढता जाता है | आत्मा वास्तवमे परमात्मारूप शुद्ध है, इसके साथ अनादिकाल से ही पाप पुण्यका सम्बन्ध है । इसी के कारण यह अनादिकालसे अशुद्ध होरहा है। इसका स्वभाव बहुतसा ढक रहा है । जितना कर्मका परदा हटा है उतना ज्ञान और वीर्य प्रगट है । उसी ज्ञान और वीर्यसे वृक्षादि प्राणी छोटेसे लेकर बड़े तक सर्व ही जंतु, पशु, पक्षी, मानव काम करते रहते है । ܠܠܠ .. ܙܠܙ असर । किसी कामका पुरुषार्थ करनेपर जब सफलता होती है तब पुण्य कर्मरूपी दैवकी मदद होती है। जब काममे दैवका पुरुषार्थपर सफलता नहीं होती है तब पापकर्मका फल प्रगट होता है । पापकर्मरूपी दैवने अन्तराय या विघ्न कर दिया । बहुत से आदमी एक ही प्रकारका व्यापार धनके लिये करते है । किन्हीको अधिक, किन्हीं को कम धनका लाभ होता है। कारण यही है कि जिसका पुण्य अधिक उसको अधिक लाभ, जिसका पुण्य कम उसको कम लाभ होता है । किन्हींको धनके पैदा करनेका उपाय करनेपर भी धनकी हानि उठानी पडती है, कारण पापका फल है । किन्हींको नहीं । यह सच पुण्य पापका फल है । लाभ होना पुण्यका फल व हानि होना पापका फल है । हरएक आत्माके पास पुरुषार्थ और दैव दोनों है । दोनोंकी सत्ता विना संसारका व्यवहार नहीं चल सकता है। यदि दैव या पाप पुण्य नहीं Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय पहला। [१७ होता तो सर्व आत्माएं सर्वदा ही शुद्ध दिखलाई पड़तीं । सर्व ही मुखी रहते, मरण, रोग, गोक, वियोग आदि कष्ट नहीं होते। यदि पुरुषार्थ नहीं होता तो कोई भी कोई उद्यम नहीं करता । दोनोंका जगतम काम है। पुरुषार्थको ही जो केवल मानते है उनके मतसे हरएक प्राणीका ___ पुरुषार्थ सफल ही होना चाहिये । उसमे कोई पुरुषार्थ व दैव विनवाधाएं नहीं होनी चाहिये । तथा विचित्रता दोनों है। आत्माओंकी होना दैव या पाप पुण्य विना संभव __नहीं है। यदि केवल देवको माना जावे, पुरुषार्थ न माना जावे तो हगएक प्राणीको वेकाम बैठना चाहिये । भाग्यमें होगा तो भोजन पान आदिका लाभ हो जायगा । पुरुषार्थ करनेमें जो अच्छे या बुरे भाव होने है उन ही से दैव या पुण्य पाप बनता है । पुरुगध विना दैव नहीं हो सक्ता। यदि देव ही दैव माना जावे तो कोई आत्मा कभी पाप पुण्यके बंधनसे छूटकर मुक्त नहीं होसक्ता है। पुस्मार्थ ही के बल जन कोई विवेकी वैराग्य और सम्यग्ज्ञानकी खड्ग सम्हालता है वह पाप पुण्यकर्मक संचयको क्षय करके व नवीन कर्मको न बन्ध करके मुक्त होजाता है। पुरुषार्थ और देव विना संसारकी गाडी नहीं चल सकती है। यह बात समझ लेनी चाहिये कि देव दो तरहका होता है-एक तो वह जो आत्माके भावोंमें विकार पैदा करता है, दूसरा वह जो बाहरी संयोग-वियोगक होनम लाभ या हानि करता है। जितना ज्ञान, व वीर्य आत्माम प्रगट है वह पुरुषार्थ अन्तरङ्गका है, वहीं अन्तरङ्गमें Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ eܙ ܙ ܢ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙܚ ܙ ܝܐܝܠ ܝ ܐܚܙ ܟܚܬ २०] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । 'ही उसको धो भी सक्ते हैं । जैसे हम अपने बाहरी दीखनेवाले स्थूल 'शरीरको भोजन पानी हवा देकर पुष्ट रखते है, रोग होनेपर दवाई • लेकर रोगको दूर करते हैं, हम ही विष खाकर उस स्थूल शरीरसे छूट भी सक्ते है, इसी तरह दैव या पाप पुण्यके वने सूक्ष्म शरीरको हम ही बनाते हैं, हम ही उसे सबल या निर्बल कर सक्त है, हम ही उससे वियोग भी पासक्त है । हमे हरएक कार्यमे पुम्पार्थको मुल्य रखना चाहिये, क्योंकि हमारी बुद्धिगोचर यही रह सत्ता है। दूसरी शताब्दीके प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ आप्तमीमांसामें लिखते है-- दैवादेवार्थसिद्धिश्वेदेवं पोरुपतः कयम् । दैवतश्वेदनिर्मोक्षः पौरुपं लिप्फलं भवेत् ॥ ८८ ।। . भावार्थ-यदि दैवसे या पाप पुण्यकर्म से ही कार्यकी सिद्धि होजाया करे, दुःख सुख होजाया करे, ज्ञानादि होजाया करे, तो दैवके लिये पुरुषार्थकी क्या जरूरत रहे ? मन, वचन, कायकी शुभ या अशुभ क्रियासे पाप या पुण्यकर्म या दैव बनता है, यह वात विलकुल सिद्ध नहीं हो । यदि दैवसे ही वन जाया करे तो देवकी संतान सदा चलनेसे कोई पाप पुण्य कर्मरूपी देवसे छूटकर मुक्त नहीं हो सक्ता है। तब दान, शील, जप, तप, ध्यान आदिका सर्व धर्म-पुरुषार्थ निष्फल होजावे, मिथ्या होजावे ।। पौरुषादेव सिद्धिश्चेत् पौरुपं दैवतः कथम् । पौरुषाचेदमोघं स्यात सर्वप्राणिषु पौरुपम् ।। ८९ ॥ भावार्थ, यदि सर्वथा. पुरुषार्थसे ही हरएक कामकी सिद्धि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्याय पहला ।' . [२१ मानी जावे तो पुण्यरूपी देवके निमित्तसे पुरुषार्थ सफल हुआ या फपके फलसे असफल हुआ, यह बात नहीं कही जासक्ती । क्योंकि एकसा काम करनेवाले कोई सफल होते है, कोई सफल नहीं होते हैं। यदि सर्वथा पुरुषार्थसे ही कार्यसिद्धि होजाया करे तो सर्व प्राणियोंके मीता पुरुषार्थ बिना चूक सफल होजाया करे। पापी जीव भी सुखी ही रहे, कभी कोई विन बाधाएं ही नहीं आवं, सबका मनोरथ सिद्ध हो। अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्ट स्वदेवतः । • बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्त्रपौवात् ॥९१ ॥ भावार्थ-स्वामी दोनोंकी जरूरत बताकर यह कहते हैं कि जिस बातका बुद्धिपूर्वक विचार नहीं किया गया हो किंतु सुख दुख विघ्न आदि होजावें उममें मुख्यता देवकी या पूर्वमे वाधे हुए अपने ही पुण्य पापकर्मके फरकी लेनी चाहिये । जो काम बुद्धिसे विचारपूर्वक किया जाना है उसमे दृष्ट व अनिष्टका होना अपने ही पुरुषार्थकी मुल्यनासे है। यद्यपि गौणतासे इष्टके लाभमें पुण्यकर्मकी व अनिष्टके होनमें पापकर्मकी भी आवश्यक्ता है। दोनोंको परस्पर अपेक्षास लेना चाहिये। क्योंकि कर्मका भावी उदय क्या होगा यह हमको विदित नहीं है इमलिये हमें तो हरएक कामको विचारपूर्वक करना चाहिये। ___ दशवीं शतालीके प्रसिद्ध आचार्य श्री अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथमें कहते है, अस्ति पुरुपश्चिदात्मा विवर्जितः स्पर्शगन्धरसवर्णैः । गुणपर्ययसमवेतः समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यैः ॥९॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ । གཡག、 कारण पडता है। ज्ञान और वीर्यके वलसे यह भावों को ठीक कर मक्ता २४ ] 1 है । तौ भी जितने अंग भावमं अशुद्धता गगद्वेष मोहकी होती है उतने अंग नया कर्मबन्ध हो जाता है, इसतरह इस आत्माके अशुद्ध पुरुषार्थसे दैव बनता है। दैवके फल से अशुद्ध भाव होते है । यह काम अनादि से होता चला आ रहा है। जन कभी यह आत्मा ज्ञानी होकर मिथ्या श्रद्धानको दूर करके यह जान जाता है कि मंग स्वभाव परम शुद्ध है, रागद्वेष मोह रहित ज्ञानानन्दमय है, रागद्वेष मोहका झल्काव मोहकर्म के उदयसे होता है व इस ज्ञानका विश्वास कर लेता है. तब आत्माके वीतराग भावमे जमनेका अभ्यास करता है, तब नए दैवका संचय रोक देता है व पुराने दैवको जला करके शुद्ध या मुक्त हो जाता है, मोक्ष पुरुषार्थ सिद्ध हो जाता है । ज्ञानी जीव दैवपर विजय पा लेता है । इस कारण पुरुषार्थ ही दैवसे बड़ा है । संसार में अपनी आसक्तिरूपी भृलसे ढैव बनता है तब संसारकी आसक्ति छोड देनेसे दैवका चनना बन्द हो जाता है। ज्ञान व वैराम्यके ध्यानसे पिछला दैव जल जाता है। ज्ञान और वीर्यरूपी पुरुषार्थके द्वारा सावधान रहनेसे ही दैवपर विजय मिलती जाती है । जैसे बीजको एक टफे 'पका लेनेपर या जला देनेपर फिर वह बीज नहीं उगता है, वैसे ही यह आत्मा नत्र कर्मोंके बीजको जलाकर मुक्त या शुद्ध होजाता है. तब फिर नए कर्मोंका बंध न होनेपर संसार दशा में नहीं आता है । - दशवीं शताब्दीके, श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती गोम्मटसार कर्मकांडमें लिखते हैं-. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' ' अध्याय पहला। . [२५ am . . . . . . . . . -..-...71 -•m पयडी सील सहावो जीवंगाणं अणाइसंबंधो। कणयोचलं मलं वा ताणत्थितं संयं सिद्धं ॥२॥ भावार्थ-जीवका और कर्म प्रकृतिरूप कार्मण गरीरका या देवका दोनोंका प्रवाहरूपसे अनादिसे संबंध है। जैसे खानसे निकले हुए कनक पापाणम सुवर्ण और मलका संबंध है। यह बात स्वयं मिद्ध है कि जीव भी है और दैव भी है। इस तरह इस अध्याय्मं यह बात संक्षेपमें बताई गई है कि जीवका अपना ज्ञान व वीर्यका जो कुछ प्रयत्न है वह पुरुषार्थ है। और जो पाप तथा पुण्यकर्म है वह देव है । दैवको जीव बताया है, जीव ही उसका फल भोगता है । जीव ही उसमें तबदीली कर सक्ता है व जीव ही अपने यथार्थ धर्मपुल्पार्थसे दैवका क्ष्य करके सिद्ध व शुद्ध व मुक्त हो सक्ता है, दैवको जीत सक्ता है। पुरुषार्थका ही महानपना है। आगेके अध्यायोंमे इमी अध्यायके कथनका विस्तार किया जायगा। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । པ་ ས ནམ་ ་ 14 ་ག་བ་ है । इससे कडा, कंठी, अंगूठी, वाली, भुजवन्ध, हार आदि अनेक गहने बन सक्ते हैं । एक गहना एक समयमें बनेगा दूसरा बनाने के लिये पहलेको तोडना होगा। जिस समय कंठीको तोडकर कडा बनाया जायगा | कंठीका नाश जब होगा तब ही कडेकी उत्पत्ति होगी. सोनापना रहेगा । इसलिये सोना गुण पर्यायवान व उत्पाद व्यय श्रौव्यरूप है । चाटी में सफेदी चिकनई आदि गुण हैं। चाढीकी थाली, गिलास, कटोरी, चमची, आदि पर्यायें वन सक्ती है । एक प्रकारकी चांदी की एक वस्तु ही एक समय में बनेगी। दूसरी वस्तु बनानेके लिये पहलीको तोडना पडेगा । चादीका कभी नाग नहीं होगा इसलिये चाढी गुण पर्यायवान व उत्पाद व्यय धौव्यरूप सिद्ध हो जाती है । गेहूं में गेहूंके गुण है । सेरभर गेहूं को पीसकर आटा बनान है. आटेको पानीसे भिगोकर लोई बनाते है, लोईको गेटीकी शकल में वेलते हैं, रोटीको पकाते हैं, गेहूकी कई पर्यायें बदलीं, गेहूंपना चना ही रहा । इसलिये गेहूं गुण पर्यायवान व उत्पाद व्यय धौव्यरूप है । लकडीमे लकडीके गुण है। उससे कुरसी. पलंग, तिपाई, मेज, पाटा, तखत आदि अनेक चीजें बना सक्ते है । एक लकडीसे एक चीज एक समयमे तैयार होगी उसे तोडकर दूसरी चीज बनानी होगी, लकडी बनी रहेगी, इसलिये लकडी गुण पर्यायवान व उत्पाद व्यय धौव्यरूप है । कपासमे कपासके सफेदी आदि गुण हैं। थोडीसी कपास हमारे 'पास है, इसको तागेमे बदल सकते है, तागोंसे कपडेका धान वुन सकते हैं, उस थानसे कुरता, टोपी, अंगरखा, पायजामा, घोती आदि Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय दूसरा। [२९ बना सकते हैं । एक दशा बिगड़ेगी तब दूसरी बनेगी । कपासपना कभी नाश नहीं होगा । इसलिये कपास गुण पर्यायवान है व उत्पाद व्यय नोव्यरूप है। हजारों लाखों दृष्टान्तोंसे यही सिद्ध होगा कि मूल वस्तु सदा बनी रहती है। केवल उसकी पर्याय या अवस्थाएं ही बनती तथा विगडती है। आत्माकी तरफ विचार करें तो हम देखेंगे कि कोई आत्मा सिी समय क्रोधी होरहा है, वहीं कुछ देर पीछे गात होजाता है। यहां क्रोधका नाग व गातिका जन्म हुआ तथापि आत्मा वही है । जब एक मानव मरकर पशु पढा होता है तब मानवपनका नाग, पशुपनका जन्म हुआ परन्तु आत्मा वही है। इस जगतमे जितने मूल पदार्थ जीव तथा अजीब है वे मव बने रहते है, केवल उनमें अवस्था बढरा करती है। Root substances always exist, only the conditions are chunging इस जगतको जो परिवर्तनगील व क्षणिक व नाशवंत कहा जाता है वह सब अवस्थाओंके बहरनेकी अपेक्षासे ही कहा जाता है। वहीं नगर उजाड होगया, वहीं नगर बम गया । पानीसे भाफ बनती है, मेघ बनते है । मेघसे फिर पानी बनता है। नदी सूख जाती है फिर भर जाती है। कहीं मकान टूट जाता है कहीं बन जाता है। सर्व ही द्रव्य अपनी २ अवस्थामें हमको दिखलाई पड़ते हैं। वै अवस्थाएं वढलती हैं, इसीसे जगतके पदार्थ मिथ्या व नागवंत कहाते है, परन्तु हम किसी भी • वस्तुका सर्वथा लोप नहीं कर सक्ते हैं। कपडेको जलाएंगे, राख बन .जायगी ।.न कोई चीन विना किसी चीजके बिगडे बन सक्ती है न Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Keer Sareerna .... .. . .. ३२] जैनधर्म दैव और पुरुषार्थ । ३-द्रव्यत्व-जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यमें पर्याय या अवस्थाएं सदा होती रहें । द्रव्य परिणमनगील हो, वढलनकी शक्ति रखता हो, कूटस्थ नित्य न हो, उसी शक्तिसे जगतमे भिन्न २ अवस्थाएं देखनमें आती हैं । पानीसे वर्फ वनती है, भाफ बनती है, गहूंसे रोटी बनती है, मिट्टीसे घडा बनता है, शरीर बालकसे युवा, युवासे वृद्ध हो जाता है। जन्मके वाद मरण, मरणके वाढ जन्म हो जाता है, दिनसे रात रातसे दिन होता है। -प्रमेयत्व-जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य किसीके ज्ञानका विषय हो, कोई उसको जान सके । यदि द्रव्योंका ज्ञान न हो तो उनका होना भी कैसे कहा जावे ? इससे सिद्ध है कि सर्वन केवली भगवान परमात्मा सब द्रव्योंको जानते है, वे ही अरहंत पदमें या जीवनमुक्त पदमें अपनी दिव्य वाणीसे प्रकाश करते है। अल्पज पूर्ण नहीं जान सक्ते है। जितना जितना ज्ञान बढता है द्रव्यों का ज्ञान अधिक होता है। शुद्ध व निरावरण ज्ञान सत्रको पूर्ण जानता है। द्रव्योंमें वह शक्ति है कि वे जाने जा सकें। ५-अगुरुलघत्व-जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य अपनी मर्यादाको उलंघ,कर कम या अधिक न हो। जितने गुण जिस द्रव्यमें हों वे सदा बने रहें। उनमेंसे कोई गुण कम न हो न कोई गुण मिलकर अधिक द्रव्य अपने गुणसमूहको लिये हुए, सदा ही बना रहे। इसी शक्तिके कारण जीव कभी अजीव नहीं होसक्ता, न अजीव कभी जीव होसक्ता है। . ६-प्रदेशवत्व-जिस शक्तिके निमित्से द्रव्यका कुछ आकार (Size) अवश्य हो। हरएक द्रव्य जो जगतमें, है वह आकाशके Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । उनको देखनेकी दो दृष्टिया या अपेक्षाएं या नय standpoints है एक निश्चय नय या असली या सच्ची दृष्टि real point of view दूसरी व्यवहार नय या लौकिक दृष्टि या असत्य या अशुद्ध, दृष्टि practical point of view हजार रंगीन पानीके वनोमें निश्चयनयसे केवल पानी ही पानी दीखता है। शुद्ध असली पानी दिखता है, व्यवहारनयसे रंग दिखता है उसी तरह समारी आत्माएं कर्म मैलसे विचित्र प्रकारसे मिली हुई हैं, निश्चयनयसे देखा जावे तो सब शुद्ध अपने स्वभावमे दीखती है, व्यवहारनयस नाना प्रकार अशुद्ध दीखती हैं व कहलाती है । कोई क्रोधी, कोई मानी, कोई मायावी. कोई लोभी, कोई गोकी, कोई हर्षित, कोई विशेष जानी, कोई कम जानी, कोई अनानी । शरीरकी अपक्ष कोई पशु, कोई पक्षी, कोई सी, कोई पुरुष आदि । दोनों दृष्टियोंसे आत्माको जानना चाहिये, पहले हम निश्चयनयसे आत्माका स्वभाव या सच्चा स्वरूप विचारते है। आत्मा स्वभावसे परम शुद्ध है, जैसे निर्मल जल स्वभावसे निमित्त है। शुद्ध पानी निर्मल, मीठा, शीतल आत्माका स्वभाव होता है, वैसे यह आत्मा स्वभावसे निर्मल ज्ञाता दृष्टा निर्विकार वीतराग आनन्दमय परमात्मारूप है। इसके छ. विशेष स्वभावोंका विचार यहा करते है । १-ज्ञान, २दर्शन, ३-सम्यक्त, ४–चारित्र, ५-वीर्य, ६-सुख । ज्ञानदर्शन-जो सब जाननेयोग्यको जान सके वह ज्ञान है, जो सब देखनेयोग्यको देख सके वह दर्शन है। सामान्य चेतनभावको दर्शन, विशेष चेतनभावको ज्ञान कहते हैं। हरएक पदार्थ सामान्य Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय दुसरा। [३७ विशेषरूप है, शुद्ध ज्ञानढर्गन सबको एकसाथ जानते व देखते है। संसारी आत्माएं मैली हैं उनके ज्ञानदर्शन स्वभावपर परदा है। जितना परदा जिसका दूर हुआ है उतना ही वह जानता देखता है। एक बालक बहुत कम जानता हे, विद्या पहनसे व अनुभवसे जानी हो जाता है। उसके भीतर ज्ञानकी वृद्धि कैसे हुई ? ज्ञानके होनमें बाहरी कारण अध्यापकगण व पुद्गलमे है, भीतरी कारण अनानका परदा हटता है। ज्ञान ऐसा गुण है जो भीतरसे ही विकास पाता है, कोई बाहरसे दे नहीं सक्ता । देन लेन ज्ञानम नहीं होता है। जहा देन लेन होता है वहा एक जगह घटती होती है तन दूसरी जगह बहती होती है। जैसे-धनके देन लेनमें होता है। किमीके पास हजार रुपये हैं, यदि वह १००) सौ देता है उसके पास ९००) नौसौ रह जाते है तब पानेवालेको सौ मिलते है। जानमे ऐसा नहीं होता है। यदि ऐसा देनलेन होतो पढानेवाले ज्ञानमें घंटे तब पढनेवाले ज्ञानमे बढे । ज्ञानके सम्बन्धमे देनेवाले व पानवाल दोनो ही ज्ञानको वहाते है । पढानेवालोंका ज्ञान भी साफ होता हैं, कम नहीं होता हैं। पहनेवालोका ज्ञान तो वह ही जाता है। दोनो तरफ बहती होनेका कारण दोनो तरफ भीतरसे अनानका नाश है। ज्ञानके ऊपरसे मैलका दूर होना है । इससे सिद्ध है कि पूर्ण जानकी शक्ति हरएक आत्मामे है। जिसका जितना अज्ञान हटता है उतना वह जानता है। परमात्माको मर्वदर्गी व सर्वज्ञ इसीलिये कहते हैं कि उसका जानदर्शन शुद्ध हैं, उनपर कोई रज या मल नहीं हैं। परमात्मा विश्वके सर्व पदार्थों को जानते हैं। उनकी भूत, भावी, वर्तमान, तीनों कालोंकी Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . ....... ... my ४०] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ ।। mer.rand माया-कषाय भी ज्ञानको मैरा कर देता है, कुटिल बना देता है। मायाचारी अच्छी शिक्षा ग्रहण नहीं करता है। ज्ञानका बुरा उपयोग करता है। परको ठगता है । मायाचारीके परिणामोंमे सदा आकुल्ता व भय बना रहता है । इस कारण जानकी निर्मलता नहीं रहती है। सरलतास जो ज्ञानका विकास होता है वह माया कपायके कारण बंद हो जाता है, माया भावके कारण किया गया गाल पठन, जप, तप, धर्माचरण सब अपने फलको नहीं देते है, उनसे भावोंकी स्वच्छता नहीं होती है। लोभ–कपाय सर्व विकारोंका मूल है । लोभसे प्राणी अन्धा होकर धर्मोपदेशको भूल जाता है। अन्याय व असत्यका दोप उसके मन, वचन, कायके वर्तनमे हो जाता है। लोभ कपाय आत्माको पाचों इन्द्रियोंके भोगमे प्रेरित करता है तब न्याय अन्यायका विचार जाता रहता है, भोग सामग्रीको चाहे जिस तरह प्राप्त करता है, भोगासक्त होकर तृप्णाका रोग वढा लेता है । चाहकी दामे जला करता है। इष्ट विषयोंके न पानेपर आकुलित होता है, इष्ट विषयोंके वियोगपर गोक करता है, मर्यादाका ध्यान नहीं रहता है। जितना २ धनादिका संग्रह होता जाता है और अधिक चाहको बढा लेता है। सन्तोषसे जो सुख मिलता है वह लोमके विकारसे नाश हो जाता है। इस तरह चारों ही कषायभाव आत्माके भीतर मैल पैदा करते हैं, आत्माका चारित्र गुणका शांतभाव बिगड जाता है। ज्ञान गुणको विकारी बना देते है। इसलिये यह बात निश्चय करना चाहिये कि आत्माका स्वभाव परम शांतभाव या वीतरागभाव है या चारित्र Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय दूसरा । है। शांत भाव रहते हुए ज्ञानका विकास होता है। शांत भाव में तत्वोंका मनन होता है । शांतभाव भावको निराकुल व निर्मल रखता है । [ ४१ म वीर्य - वीर्य भी आत्माका स्वभाव है। आत्मामें अनंत चल है, जिससे इसके सर्व ही गुण पुष्ट रहते हैं । यह अपने वीर्य से सदा ही स्वभावके भोगमं तृप्त रहता है । संसारी आत्माओं में वीर्यकी जितनी प्रकटता होती है उतना ही अधिक उत्साह बना रहता है । हरएक काम में साहसकी जरूरत है। यही आत्मवीर्य है । आत्माके बलसे ही शरीर के अंग उपंग काम करते हैं। आत्माके निकल जाने से शरीर बेकाम मुरदा होजाता है | शरीरमें बहुत बल होनेपर भी यदि आत्मबल न हो तो युद्धमें सिपाही काम नहीं कर सक्ता है । व्यापारी व्यापार नहीं कर • सक्ता है | बड़े बड़े काम साहससे ही होते हैं । ज्ञानका काम जाननेका है. । वीर्यका काम ज्ञानके प्रमाण क्रिया करनेका है । यदि आत्मामें मैल न हो तो यह वीर्य गुण पूर्ण प्रकाश रहे । परमात्मा में कोई मैल नहीं है । इसीसे उसमें अनंत बल सदाकाल रहता है | आत्म • वीर्यको भी आत्माका स्वभाव निश्चय करना चाहिये । सुख-या परमानंद भी आत्माका मुख्य गुण है। जहां ज्ञान'में शांति रहती है वहां सुख गुणका प्रकाश रहता है । परमात्मामें - कोई विकार या अशांति नहीं है, इससे यहां अनंत सुख सढ़ा बना • रहता है। यह सुख स्वाधीन है। किसीके पराधीन नहीं है । जैसे ज्ञान, चारित्र, आत्माका गुण है वैसे ही सुख आत्माका - खास गुण है । संसारी जीवोंको जो इन्द्रियोंके भोग से सुख भासता है वह उसी मुख गुणका अशुद्ध झलकाव है । इन्द्रिय सुखसे कभी तृप्ति Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ । ४४ ] अवधि तक ज्ञान होता है । मन:पर्यय ज्ञान - यह भी दिव्यज्ञान है जिससे एक योगी महात्मा साधु दूरवर्ती मानवोके मनकी सूक्ष्म रूपी वातोको जान लेता है । साधारणमं ससारी सर्व ही प्राणियोंकि पहले दो ज्ञान मति व श्रुत पाए जाते है । जितना ज्ञान प्रगट रहता है वह आत्माके ही ज्ञान गुणका अंग है, दैवका फल नहीं है, किन्तु दैवका अन्धकार दूर होनेपर प्रकाशकी झलक है। 841 इसी प्रगट ज्ञानको पुरुषार्थ कहते है । इस प्रकाश हरुक आत्मा स्वतंत्रता से जानने का काम कर सक्ता है । जितनी ज्ञानकी शक्ति ढकी है उतना ही अज्ञान रहता है। दर्शनावरण कर्मका जितना क्षयोपगम रहता है अर्थात् जितना उसका उदय नहीं रहता है उतना दर्शन गुणका प्रकाश होता है। वह विभावदर्शन तीन प्रकारका होता है । चक्षुदर्शन - आखके द्वारा सामान्य अवलोकन | अचक्षुदर्शन - आखको छोड़कर अन्य चार इन्द्रिय तथा मनमे सामान्य अवलोकन | अवधिदर्शन - यह दिव्य दर्शन है जो आत्माही के द्वारा अवधिज्ञानकी तरह होता है । जितना दर्शनगुण प्रगट रहता है उतना पुरुषार्थ है | स्वभावरूप ज्ञानको केवलज्ञान, स्वभावरूप दर्शनको केवलदर्शन कहते हैं । इस तरह सर्व ज्ञान पाच प्रकार व दर्शन चार प्रकार है। मोहनीय कर्मके ढो भेट है- दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय | दर्शन मोहनीय सम्यक्त गुणको घात करता है। जबतक यथार्थ प्रतीति आत्मा और अन्य पदार्थोंके सत्य स्वरूपकी न हो तबतक सम्यक्त - गुणका विपरीत भाव मिथ्यास प्रगट रहता है । जन इस मिथ्यात्व Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अध्याय दूसरा। [४५ भावका बहुत जोर होता है तब इस प्राणीको धर्मकी तरफ, सत्य आत्मकल्याणकी तरफ रुचि नहीं होती है। यह ससारके विषयभोगोंका ही प्रेमी बना रहता है। वैराग्य भाव व शुद्ध आत्माका श्रद्धान नहीं जाता है । गह बनानी होकर अपने सत्य म्वभावको भृले रहता है। देव व कर्मका उदय सदा एकमा नहीं रहता है । जब कभी दर्शनमोहनीय कर्मका उदय मंद पडता है तब कुछ २ लक्ष्य धर्मकी तरफ जाता है। ज्ञानके साधक मत्य आगमवे. अभ्याससे व सत्य धर्मापदेगक गुरुक उपदेश नब कुछ समझ बहती है और यह अभ्यासी तत्वोंका वारबार मनन करता है, अपने ज्ञान व वीर्यके पुरुषार्थको कामम लेता है तब मियान्य भाव पल्ट कर सम्यक्त गुण प्रकाश हो जाता है। सम्यक्त गुणका प्रकाश होना एक और परमवाल्याणकारी पुरुषार्थका लाभ हो जाना है । जय तक सम्यक्त गुण प्रगट नहीं होता है तबतक मिथ्यात्व भाव विभाव बना रहता है। इस मिथ्यात्व भावके कारण संमारी आत्मा अपनको मृले रहता है, मोह ममतामे फंसा रहता है। चाग्त्रि मोहनीय-कर्म चारित्रको या गात भावको घात करता है तब इस कर्मक उदयमे क्रोध, मान, माया, लोभ चार कपायोंमेसे कोई कपाय भावको मैला बनाय रहती है। ये चारों ही कपाय आत्माकी वैरी है। इनका भी उदय मदा एकमा नहीं रहता है। इन कपायोंके उदयका असर चार तरहका होता है-तीव्रतर, तीव्र, मंद, मंदतर । दर्शन मोहनीय व चारित्र मोहनीय दोनोंका उदय आत्माके भावोंको विकारी व मतवाला बना देता है। भीतरी दैव यही बाधक है । ज्ञान, दर्शन, वीर्य, गुण Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] ....जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ ।.. जब पूर्ण शुद्ध ज्ञान दर्शन प्रगट होता है तब प्रत्यक्ष आत्माका साक्षात् ज्ञान व दर्शन होता है तब अतीन्द्रिय आत्मामें थिरता अनंतवीर्यके गुण द्वारा होती है । मोहके क्षयसे सम्यक्त चारित्र गुण शुद्ध प्रगट होता है तब ही अनंत शुद्ध सुख गुणका प्रकाश होता है । जबतक इनका उदय होता है व तीन कर्म ज्ञानावरण दर्शनावरण व अंतरायका क्षयोपशम या जितना उढय नहीं होता है उतना अशुद्ध या अपूर्ण सुख गुण प्रगट रहता है। जहातक पूर्ण शुद्ध अनंत सुख गुण न झल्के वहातक स्वभाव न होकर विभाव रहता है । उस विभावरूप सुखके तीन भेद सासारिक अशुद्ध दशाम प्रगट होते है-(१) इन्द्रियजनिंत सुख । रागी जीव रागमे इन्द्रियके भोगोंको जानकर उस भोगमे अपने वीर्यसे तन्मय हो जाते है तब रति करनेसे अतृप्तिकारी सुख वेदन होता है या कभी मनसे इष्ट पदार्थोंका चिन्तवन करके भी सराग सदोष सुखका अनुभव होता है। (२) दुखका अनुभव जव इष्ट पदार्थका वियोग होता है व अनिष्ट पदार्थोका संयोग होता है तब इन्द्रिय या मन द्वारा उनका ज्ञान होते हुए वीर्य द्वारा उस कष्टको भोगा जाता है। इसमे अरति भावके द्वारा सुख गुणकी मलीन द्वेष रूप अवस्था प्रगट होती है इसीको दुःख, क्लेश, कष्ट या शोक कहते है। (३) सम्यक्तके चारित्र गुणके कुछ अंश शुद्ध होनेपर जब आत्मज्ञानी इन्द्रियोंसे व मनसे उपयोगको हटाकर अपने ही शुद्ध आत्माके स्वरूपमे जोडता है और आत्मानुभव झलकाता है तब आत्मीक सुखका वेदन होता है। यह सुख सच्चा है तो भी शुद्ध व पूर्ण न होनेसे विभाव है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..mricanasshare अध्याय दूसरा। , . [४९. . इस तरह देव या कर्मका प्रवाहरूपसे अनादिकालीन संयोग इस संमारी आलाके साथ होरहा है। इसीलिये स्वाभाविक गुण शुद्ध तथा पूर्ण प्रगट नहीं हैं. अपूर्ण व अशुद्ध ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त, चारित्र, वीर्य व मुख गुण प्राट है इसीलिये इनको 'विभाव कहते हैं। मोहनीय कर्मका फल मदिराके समान मोह या प्रमाद या अंसावधानी या कषाय भावोंको पैदा कर देना है। उन मोहमई विभावोंके कारण साधारण रूपसे जाके प्राणी अपनी आत्माके मूल शुद्ध स्वभावको भूले हुए है व संमारक भीतर फंसे हुए अहंकार ममकार कर रहे हैं। कर्मक पलसे जो आमाके विभाव ढगा होती है वही में हैं, यई अहंकार है । जैसे-में क्रोधी, मैं मानी, मैं मायावी, मैं लोभी, मैं सुखी, मैं दुखो। जो वस्नु अपनी नहीं है पर है उसको अपनी मानना ममकार है। जैसे-मेग शरीर है, मेरा घर है, मेरा परिवार है, मेरा पुत्र है, मेरा ग्राम है, मेग देश है, मेरी संपत्ति है, इस 'अहंकार ममकारमें फैमा हुआ रात दिन कापनका भाव किया करता है। यद्यपि निश्चयसे या म्वभावसे यह आत्मा पर भावका यो पर पतार्थकों करनेवाला नहीं है तौभी मोटी अन्नानी जीव ऐसा माना करता है-मैंने शुभ यो अशुभ भाव किये, मैंने प्राणियोंको दुख व मुख पहुंचाया, मैने मला किया मन बुरा किया, मैंने घटपट मकान गहना वर्तन आदि बनाया, नि तप किया, मैन जप किया, मैंने दान किया, मैंने पूजा की, मैने परोपकार किया; इस तरह अपने आत्माको पर या अशुद्ध भावीका का माना करता है। तथा व्यवहारमें ऐसा ही.कहा जाता है व 10. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .९२] . - जैनधर्म दैव और पुरुषार्थ । ... पटणा नहीं कर सकते हैं। जगतके प्राणियोंका विभाग प्राणोंकी अपेक्षा नीचे प्रकार है. प्राण दश होते है-पाच इन्द्रिय प्राण, काय बल, वचन बल, मन वल, प्राण, आयु, उच्छ्वास । जिनसे कोई जीव स्थूल शरीर में जाकर कुछ काम कर सके उन शक्तियों ( Vitalhtaes ) को प्राणा कहते हैं। एकेन्द्रिय प्राणी जैसे पृथ्वीकायधारी, जलकायघारी. अग्निकावधारी, वायुकायधारी, वनस्पतिकायघारी, Vogtables इन पांच प्रकारके स्थावर कायवालों के एक स्पर्शनइन्द्रिय होती है, जिससे छू करके ही जानते है । इनके चार प्राण पाए जाते है-१ स्पर्शनइन्द्रिय, २ कायबल, ३ आयु, ४ उच्छ्वास। द्वीन्द्रिय प्राणी-जैसे लट, केचुआ, कौड़ी, संख, सीप । इनके स्पर्शन व रसना दो इन्द्रियां होती हैं, ये छूकर व खाकर जानते हैं। इनके प्राण छः होते है । एकेन्द्रियके चार प्राणों में रेसना इन्द्रिय व वचनबल बढ़ जाते है। : तेन्द्रिय प्राणी-जैसे चीटी, खटमल, जूं, इनके स्पर्शन, रसना, नाक तीन इन्द्रिय होती है। ये छूकर, खाकर व सूंघकर जान सक्ते हैं इनके प्राण सात होते हैं एक नाक इन्द्रिय बढ़ जाती है। .. चौन्द्रिय प्राणी-जैसे मक्खी, भौंरा, पतंग, मिड़ इनके स्पर्शन, रंसना, नाक, आंख चार इन्द्रियें होती हैं। ये छूकर, खाकर, सूंघकर व देखकर जान सक्ते है। इनके प्राण आठ होते है। एक आंख बढ जाती है। पेन्द्रिय प्राणी असैनी–जैसे पानीमें रहनेवाले कोई २ . Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६1 जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । २-तैजस वर्गणाएं" इनसे तैजस शरीर (विजलीका शरीर) Eelectrical body बनता है। यह शरीर कार्मण शरीरके साथ-साथ रहता है। ३-मनोवेर्गणाएं-इनसे द्रव्य मन mind organ हृदयके स्थानमें आठ पत्तोंके कमलके आकारका बनता है। इससे तर्क शक्तिमें मदद मिलती है। भाषा वर्गणाएं-इनसे गन्द या बोली या आवाज मानती है। ५-आहारक वर्गणाएं-इनसे तीन गरीर बनते हैं। औदारिक-मनुष्य व तिर्यचोंका स्थूल शरीर, क्रियिक-देव तथा नारकियोंका स्थूल शरीर, आहारक-साधुका दिव्य शरीर जो विशेष तपसे बनता है। दश प्राणधारी मानव जन्मसे लेकर मरण तक इन पांचों प्रकारको वर्गणाओंको हर समय ग्रहण करता रहता है। आत्मामे एक योगशक्ति है यही खींचनेवाली शक्ति है। इसके द्वारा अपने आपसे वर्गणाएं खिंचकर आती है। लोक सब जगह इन पाचों प्रकारकी वर्गणाओंसे पूर्ण भरा है। जैसे गर्म लोहा पानीको खींच लेता है या चुम्बक पाषाण-लोहेको खींच लेता है वैसे योगशक्ति इनको खींच लेती है। - योगशक्तिकी तीव्रता या प्रबलतासे अधिक वर्गणाएं खिंचती हैं, उसकी मंदतासे या निर्वलतासे थोड़ी वर्गणाएं खिंचती है। योगाभ्यासी तपस्वीके बहुत वर्गणाएं खिंचकर आती हैं । एकेन्द्रिय स्थावरके बहुत कम आती हैं, क्योंकि उसकी योगशक्ति निर्वल है। इन पांचोंमें Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ neveenraarim m er.marewewwreservmwwwin अध्याय तीसरा। [५७ सबसे सूक्ष्म व सबसे अधिक शक्तिधारी कर्मिण वर्गणाएं हैं। . तैजस वर्गणामें जितने- परमाणुओंका बंध है उससे अनंतगुणे परमाणुओंका बंध कार्मण वर्गणामें है । जैन सिद्धान्तमें संख्याका अल्पबहुत मात्र बतानेके लिये संख्यात, असंख्यात, अनंत ऐसे तीन मेद किये हैं। मनुष्यकी बुद्धिमें आने योग्य गणना संख्यात तक है, शेष दो अधिक अधिक हैं। तैजस वर्गणाको बिजली या electric का स्कंध समझना चाहिये। . विजलीकी शक्ति से कैसे २ अपूर्व काम हो रहे हैं यह वात आजकलके विज्ञानने प्रत्यक्ष बना दी है। हजारों कोस दूरका शब्द सुन घड़ता है, हवाई विमान चलते हैं, बेतारकी खबरें जाती हैं, तब कार्मण वर्गणामें आश्चर्यकारी शक्ति होनी ही चाहिये तब ही पाप पुण्य कर्ममय कार्मण शरीरसे ,संसारी प्राणियोंकी विचित्र अवस्थाएं होती हैं। कार्मण शरीरके बननेका उपादान या मूल कारण कार्मण वर्गणाएं हैं। निमित्त कारण आत्माकी योगशक्ति व मोह भाव या क्रोधादि कषाय भाव या राग द्वेष मोह हैं। मन वचन या कायके हलन चलनसे आत्माके प्रदेशों में या आकारमें कंपनी होती है, लहरें प्रगट होती हैं, इस आत्म परिस्पंदको द्रव्ययोग कहते है। उसी काल योगशक्ति वर्गणाओंको खींचती हैं। इस शक्तिको भावयोग कहते हैं। ये खिंचकर आए हुए कर्म पहलेसे स्थित कार्मण शरीरके साथ बंध जाते हैं। उनके बंधनेमें तीव्र, तीव्रतर, मंद, मंदतर कषाय भाव निमित्त कारण होते हैं। कषाय सहित योगसे जो कर्म आते हैं उसको सांपरायिक आस्रव कहते हैं, क्योंकि वे Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ 42 कथ ३ - बेदनीय, ४ - मोहनीय, ५ – आयु, ६ – नाम, ७-गोत्र, ८-अंतराय । के निमित्त कारण संसारी प्राणीमें होनेवाले योग व कषाय है । विशेष जाननेके लिये हरएक कर्मके बंधके कारण इन आठ कर्मो M 71 141 नीचे लिखे भाव है : 1 ६० """ · '१ - प्रदोष भाव - तत्वज्ञानकी व मोक्षमार्गकी उपकारी बातें 1 ज्ञानावरण तथा सुनकर या जानकर भावों में प्रसन्न होकर द्वेषभाव दर्शनावरण के कारण या दृष्टभाव या मलीनभाव या पैशून्यमाव, ईर्षा - " १ 11 , *विशेष भाव | माव रखना । . ! २ - निह्नन -- आप जानते हुए भी कहना कि हम नहीं जानते हैं, अपने ज्ञानको छिपाना । ज्ञानके छिपाने में दूसरा कोई उस ज्ञानका लाभ नहीं ले सकेगा, यह दोष होगा । 34 * 111 मात्सर्य — ईर्षाभावसे ज्ञानदान नहीं करना । दूसरा मी जानकर मेरे बराबर हो जायगा, मेरी प्रतिष्ठा घट जायेगी या मेरा स्वार्थ साधन नहीं होगा । ĥ ; F 1: 56 " 8 - अन्तराय — ज्ञानदर्शन के कारणोंको बिगाड़ना, ज्ञानके . , प्रकाशमें विघ्न करना, ज्ञानकी वृद्धि न होने देना, शास्त्रोंको न दिखाना, byes K प्रचार में तन मन धनका लगाना । " ア [ 11 ५- आसादन - दूसरा कोई ज्ञानका प्रकाश करना चाहता है 15. उसको मना करना, न कहने देना, ज्ञानीका विनय न करना, गुण ८ 1 1 13.7 प्रकाश न होने देना । , 1 ६ - उपघात -- यथार्थ ज्ञानका कुयुक्तियोंसे खण्डन करना, - ११ 3. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय तीमरा। ...... ........khani.tammana . सत्यको असन्य रहगना । ज्ञानदर्शनके प्रकाशम सर्व ही दोष इन कौके पंचक कारण हैं । . . . . दुःसफलदायक ' असातावेदनीय' कर्मके बन्धके विशेष भाव । (१) दुःख-म्दयं दुःखी होना, दूसरोंको दुःखी करना या ऐसे काम करना व ऐसी बातें करना जिससे आप भी दुखी हो व दमगेको भी दुख हो। (२) शोक-हितकारी वस्तुकं न होनेपर व वियोग होजाने र गोक स्वयं करना या दूमरेको शोकित करना या इस तरह वर्तना, जिससे आप व दृमरे दोनों शोक्ति हों। (३) ताप-अपयश आदि बुग फल होनेके कारण अन्तरंगों तीव स्ताप विदित करना या दुसरेको संतापित कर देना, या ऐसा व्यवहार करना जिम्से आप भी पश्चाताप करें व दुमरे भी पश्चात्ताप के. यहा भावों में सोमपन रहता है। (१) आमन्दन-भीतरी कष्टको रोकर, आंसू बहाकर प्रगट करना या दूसरेको रुला देना, या ऐसा वर्तन करना जिससे आप भी विलाप करे व दूसरे भी रोवें। (५) वध---स्वयं अपने इन्द्रियादि प्राणोंका घात करना. या दमरोंके प्राण लेना या ऐसा वर्ताव करना जिससे आप भी मरे व दसर भी मारे जावें। . . . . . . (६) परिदेवन-ऐसा रुदन करना या रुला देना या आप व दूसरे टोनोंको रुल्यना जिससे सुननेवालोंके भावमें दया होजावे व Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ ।। ARMANIRAM antar व्यवहार करना, तथा संसारको बढानेका श्रद्धान रखना, नास्तिक भाव रखना। चारित्रगुणघातक 'चारित्रमोहनीय', कर्मवन्धके विशेषभाव । : (१) क्रोध, मान, माया, लोभकी तीव्रता रखनी । . ., (२) अपने व दूसरोंमे तीव्र कषाय भाव पैदा कर देना । । (३) तपसी साधुओंके व्रतोंमें दूषण लगाना । (४) सक्लेश भावसे तप या व्रत करना । (५)सत्यधर्म आदिका हास्य करना, बहुत हंसी व बकवाद करना। (६) धर्मसे अरुचि रखकर खेल कूदमें मगन रहेनौ । । (७) दूसरोंमे पापमें रति व धर्मसे अरति उत्पन्न कर देना । (८) अपने व दूसरों में शोक भाव पैदा कर देना।। (एं) स्वयं भयभीत रहेकर दूसरोंमें भय पैदा कर देना । । (१०) शुभ कामोंसे ग्लानि करना । (११) कामविकारकी तीव्रता रखनी । नरकगतिमें रोक रखनेवाले 'नर्कआयुके' बंधके भाव । (१)प्राणीपीडाकारी अन्यायपूर्वक बहुत व्यापारर्वआरम्भ करना। (२) धर्मसे विमुख होकर संसारमें बहुत ममता व मुर्छा रखनी। (३) हिंसा, झूठ, चोरी, रत्री रमण व विषयभोगके प्रति गृद्धभाव रखना । . (४) दुष्ट रौद्र हिंसाकारी ध्यान रखना । तिर्यंचगतिमें रोकरखनेवाले 'तिर्यंच आयु'कर्मकें बंधकै विशेषभाव। __ (१) मायाचार करना, कुटिल परिणाम रखना, परको ठगना । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ver-ra. . . . . . . . . . .ran ६८] जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । नीच गोत्र, असाता वेदनीय कर्मका बंध होगा। जब शुभ भाव होगा सम शुभ आयु, शुभ नाम, उच्च गोत्र व सातावेदनीय कर्मका बन्ध होगा किंतु चार घातीय कर्मका बंध हरएक शुभ या अशुभ भाव आत्माके स्वाभाविक शुद्ध भावका घातक है । इसतरह हरएक प्राणी हरएक दशामें कभी सात प्रकार कभी आठ प्रकार कर्माका बंध किया करता है। अपने ही अशुद्ध भावोंसे दैवका स्वयं संचय होजाया करता है। इन ही अशुम व शुभ भावोंको वत नेके लिये जैन सिद्धांतमें लेश्या गळ काममें लाया गया है जिसका अर्थ है लेया। “कर्मस्कन्धै. आत्मानं लिम्पति इति लेश्या ", अथवा “लिप्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या" जिसके द्वारा आत्मा काँसे लिपे या बंधे या संसर्ग पाये वह लेण्या है। मन, वचन, या कायकी प्रवृत्तिको जो कपायसे रंगी हो या न रंगी हो लेश्या कहते है। कषायके उदयके छ भेद है-तीनतम, तीव्रतर, तीव, मन्द, मन्दतर, मदतम । इसलिये लेझ्याके भी छ भेद है-कृष्ण, वील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल । काला, नीला, भूरा (कापोत), ये तीन रंग अशुभ भावोंके दृष्टात है। अशुभतम कृष्ण, अशुभतर गील व अशुभ कापोत लेश्या है। पीत पद्म (लाल), शुल्ल ये तीन शुभ भावोंके दृष्टात हैं। मन्दकपायरूप शुभ भाव पीत है। मंदतर कक्षाय शुम भाव पद्म है, मन्दतम कपायभाव या कपाय रहित योग शुक्ल लेश्या है । इन लेश्याओंके भावोंको समझनेके लिये एक दृष्टांत प्रसिद्ध है। छः लेश्याके मावोंको रखनेवाले छ. आदमी एक वनमें यामके वृक्षको देखते है तब कृष्ण लेश्यावाला जडमूलसे वृक्षको काट Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAYANE.ME.... अध्याय तीसग। ....... कर आम लेना चाहता है। नील लेझ्यावाला जड़ छोड़कर धड़से काटकर आम लेना चाहता है। कापोत लेश्यावाला बड़ी २ शाखाएं तोड़कर आम लेना चाहता है। पीत लेश्यावाला आमके गुच्छे तोड़ना चाहता है। पद्म लेश्यावाला पक्क आम ही तोड़ना चाहता है। शुक्ल लेश्यावाला नीचे गिरे हुए आमोंको ही खाना चाहता है। हरएक बुद्धिमान प्राणी अपने भीतरके भावोंसे अपनी लेझ्याका या अशुभ तथा शुभ भावोंका पता लगा सक्ता है। आठ कर्माक उत्तर भावोंक होनमें बाहरी निमित्त प्रबल कारण पड़ते हैं, भेद। इसलिये उत्तम संगतिका विचार सदा करते रहना . चाहिये। आठ कमकि उत्तर भेद १४८ हैं। उनका जानना भी जरूरी है। ज्ञानावरण कर्मके ५, दर्शनावरण कर्मके ९, : वेदनीयके २, मोहनीयके २८, आयु कर्मक ४, नाम कर्मके ९३, गोत्र कर्मके २, अंतरायके ५ कुल १४८ हैं। ५-ज्ञानावरणकी उत्तरप्रकृति।। (१) मतिज्ञानावरण-जिसके उदयसे मतिज्ञान (पांच इंद्रिय तथा मनसे होनेवाला सीधा ज्ञान) न होसके। ५ (२) श्रुतज्ञानावरण—जिसके उदयसे श्रुतज्ञान (मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थसे अन्य पदार्थका ज्ञान) न होसके। (३) अवविज्ञानावरण-जिसके उदयसे अवधिज्ञान (एक दिव्यज्ञान) न होसके। (४) मनापर्यय ज्ञानावरण-जिसके उदयसे मनःपर्यय ज्ञान. (एक दिव्यज्ञान ) न होसके। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ ।। ९ नोकषाय-कुछ कपाय जो कपायके उठ्यके साथ काम करे। १-हास्य-जिसके उदयसे हास्य प्रगट हो। २-रति - जिसके उढयसे इन्द्रियों के विषयोंमे राग हो। ३-अति-जिसके उदयसे विषयोंमें अरुचि हो-द्वेष हो । ४-क्रोध-जिसके उदयसे क्रोधभाव हो।। ५-भय-जिसके उदयसे उद्वेग या भय हो। ६-जुगुप्सा–जिमके उदयसे दूसरेसे रानि या घृणा हो। ७-स्त्रीवेद-जिसके उदयसे स्त्री संबन्धी कामभाव हो। ८-पुवेद-जिसके उदयसे पुरुष सम्बन्धी कामभाव हो। ९. नपुंपकवेद-जिमके उदयसे स्त्री पुरुपके मिश्र कामभाव हो। ४-आयु कर्म–नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव इन चार गतियोंमें रोकनेवाले चार आयुकर्म है। एकेद्रियसे पचेंद्रिय पशु तक तिर्यच गतिमे हैं। ९३-नामकर्म ४-ति-जिसके उदयसे नारक, तिर्यच, मनुष्य, देवगतिमें जावे व वहांकी अवस्था प्राप्त करे। ५-जाति-जिसके उदयसे एकसमान दशा हो । वे पांच हैंएकेंद्रिय, द्वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौन्द्रिय, पंचेंद्रिय । ५-शरीर-जिसके उदयसे शरीरकी रचना हो। पांच शरीरोके योग्य वर्गणा ग्रहण हो। औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मण। मनुष्य, तिर्योंका स्थूल शरीर औदारिक होता है । देवनारक्यिोंका स्थूल शरीर वैक्रियिक होता है । आहारक दिव्य शरीर Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - va अध्याय तीसरा । ७३ योगियोंक बनता है । तैजस कार्मण दो सूक्ष्म शरीर सब संसारी प्राणियों के होते हैं। ३-अहापांग-ओवारिक, बैंक्रियिक, आहारक शरीरोंमें जिसके उदयसे अङ्ग व उपाङ्ग बनें। १-निर्माग-जिसके उदयस अङ्ग उपाङ्गोंक स्थान व प्रमाण बने। ५-बंधन-जिसके उदयस पांचों शरीराक युदल परस्पर बंधे। ५-बात-जिसके उदयसे पांचों शरीकि पुद्गल छिद्ररहित 'मिल जावें। ६-सम्यान-जिसके उदयसे शरीरोंका आकार बने । वे थाकार छः प्रकार हैं समन्तुन्न संस्थान-शरीर सुडौल सांचं ढला जैसा हो। न्यग्रोधारिमंडल सं०-शरीर वटवृक्षक समान ऊपर बड़ा नीचे छोटा हो। स्वाति सं०-शरीर सपैक विलके समान ऊपर छोटा नीच बड़ा हो। कुन्जक सं०-शरीर कुबड़ा हो, पीठ उठी हो । वामन सं०-शरीर वोना व छोटा हो। हुंडक, सं०-शरीर वडील व खराव हो। ६-संहनन-जिनके उदयसे द्वन्द्रियादि त्रस तिर्यच व मान. बाँके शरीरके भीतर हड्डीकी विशेषता हो । वे छ प्रकार हैं वनपमनाराच संहनन-वन (हीरोंके समान न मिदनवाले नयोंके नाल कीलें व हाइ हों। ' हा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EMAN ७६] जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । १-आदेय-जिसके उदयस प्रभावान गरीर हो। १-अनादेय-~-जिसके उदयसे प्रभाहित शरीर हो। १ यशस्कीर्ति-जिसके उदयसे उत्तम गुणोंका यश फैले। १-अयस्शकीर्ति--जिसके उदयसं सुबग न हो। २-तीर्थकर - जिसके उदयसे तीर्थकर केवली हो। जोड़ ९३--प्रकृति । २-गोत्रकर्म ! १ उच्च गोत्र-जिमके उदयस लोकपृजित बुलम जन्म हो। १ नीच गोत्र-जिसके उदयसे लोकनिन्द्य कुलमें जन्म हो। ५-अंतराय कर्म । १ दानातगय-जिसके उदयमे दान देना चाहे परन्तु दे न सके। १ लाभातराय-जिसके उदयसे लाभ होना चाहे परन्तु लाग न कर सके। १-भोगांतराय-जिसके उदयसे भागना चाहे परन्तु भोग न कर सके। १-उपभोगातराय-जिसके उढयसे उपभोग करना चाहे परन्तु 'कर न सके। १ वीर्यातगय-जिसके उदयसे उत्साह करना चाहे परन्तु उत्साह न कर सके। सर्व १४८ उत्तर प्रकृतिया है। इनमेसे ६८ पुण्य व १०० पाप प्रकृतिया हैं । वर्णादि २०को पुण्य पापप्रकृति । पुण्य व पाप दोनोंमें गिनते हैं। - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय तीसरा। [७७ पुग्य प्रकृतियोंके नाम। १ सातावंदनीय. : आयु-तिर्यच. मनुष्य, देव, १ उच्च गोत्र। ६३ नामकर्मकी-मनुप्यति मनुष्य, गत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुराग गद्रियजाति. पाचशेरीर, पांच बंधनं, पांच संघात, तीन अगोगा २० शुभ म्पीरसँगन्धवर्ग, समचतुहर्मस्थान. वज्रवृषभनाराच संहननें, अगुरु घु, परघात, उच्छ्वास, आतप उद्योत, प्रशस्त विहीयोगति, वर्ग बाद, पर्यंत. प्रत्येक शरीर. स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यर कीर्ति. निर्माण, तीर्थक ६८ ।। २० वांदिक म्यानपर ४ गिननसे व ५ बन्धन ५ संघातको ५ गीरमें गर्मित करनेसे ६८-२६-१२ पुण्य प्रकृतियें होती है। पाप प्रकृतिम ४७ घातीय (५ जा०+05०+२८ मो०+५ अंतराय, नरकयु, असातावंदनीय, नीच गोत्र. ५ नामकर्मकी-नरक गति, नरकात्यानुर्वी, तियचगति तिचेंगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, न्यग्रोध परिमंडलादि पांच संम्थान. वर्धनाराचादि पांच सहनन, २० अशुभवणादि. उपघात. अगन्तविहायोगति, स्थावा, सूम, अर्पयामि, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुम्बर, अनादेय, अयंगरकीर्ति-१००। २० वर्णादिक स्थानबर लेनेसे १००-१६८८४रहेंगी। १७ घातीयमंस मिथ मोहनीय, सम्यक्त मोहनीय दो घट जाएंगी। क्योंकि इनकाय नहीं होता है। बन्ध मिथ्यात्व दर्शन मोहनीयका Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । ही होता है । सम्यक्त होनेपर मिथ्यात्वकं तीन विभाग होत हैं। तक ८४-२४२ पाप प्रकृति रह जायगी। चार प्रकारका चंध____ मूल बन्धके निमित्त कारण अशुद्ध आत्माके योग व कपायमाक हैं। इनहीसे चार प्रकारका वंघ होता हे--प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग। इन चारोंका वन्ध एक साथ होता है। कर्मवर्गणाएं कर्मबंधकी उपादान कारण हैं, उनमें ज्ञानावरणादि स्वभाव पडना प्रकृतिबन्ध है, हरएक प्रकृतिको कितनी वाणाएं बन्धी संख्या पडना प्रदेशवन्ध है। वे बन्धे कर्म कबतक आत्माको विलकुल न छोडेंगे उनकी मर्यादा पडना स्थितिबन्ध है । उनका फल तीव या मंद पडना अनुमागवन्ध है। जब काय, या वचन या मन तीनोंमेसे कोई वर्तन करता है तब आत्माके प्रदेश सकंप होते हैं। इस सकम्पको द्रव्ययोग कहते हैं तब ही आत्माके भीतर आकर्षग शक्ति कर्म व नोकर्मवर्गणाओंको खींच लेती है, यह शक्ति भावयोग है। योगशक्ति प्रबल होनसे बहुत अधिक कर्म व नोकवर्गणाएं खिंचेगी। योगशक्ति निर्बल होतसे थोडी नोकर्मवर्गणाएं खिंचेंगी। सैनी पञ्चन्द्रिय नैसे मानव आहारक. तैजस, कार्मण, भापा, मन पांच प्रकार वळणाओंको हर समय ग्रहण करता है । कार्मणवर्गणाको कर्म शेष चारको नोकर्भ कहते हैं, योगोंकी विशेषतासे ही प्रकृति व प्रदेशबन्ध होते हैं। कषायोंकी विशेषतासे स्थिति, अनुभागबन्ध होते हैं। स्थितिबन्धका नियम–तिर्थच, मनुष्य, देव आयु इन तीन Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n merranear . . . . .. . ..... . .. . ८०] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । पल्य असंख्यात वर्षोंका होता है उससे बहुत अधिक सागरके वर्ष हैं। ४८ मिनिटसे एक समय कम उत्कृष्ट व १ आवली, १ समयका जघन्य अन्नमुहूर्त होता है। आख पलक लगनके समयसे कम समयका आवली कहते है । सैनी पंचेंद्रिय बलवान जीव तीव्रतम कषायसे आयु सिवाय सात कर्माकी उत्कृष्ट स्थिति बाधता ई, जबकि वही जीव अति मन्दनम कपायसे उनकी जघन्य स्थिति साधता है। एकेंद्रियादि जीवोंकी अपेक्षा स्थिति बन्धका नियम यह है कि जब सैनी पंचेंद्रिय जीव ७० कोडाकोडी स्थिति वाधेगा तब उसी दर्शन मोहनीय कर्मकी असैनी पंचेंद्रिय १००० सागर, चौन्द्रिय जीव १०० सागर, तेन्द्रिय जीव ५० सागर, द्वेन्द्रिय जीव २५ सागर, एकेंद्रिय जीव-१ एक सागर स्थिति बाधेगा, इसी तरह सर्व कर्मोकी स्थितिका नियम है। जैसे ज्ञानावरण कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति सैनी जीव ३० कोडाकोडी सागर बाधेगा। तत्र असैनी पचेंद्रिय १०००. सागर, चौन्द्रिय जीव ३१ सागर, तेंद्रिय ५० सागर, द्वेन्द्रिय सागर, एकेंद्रिय ॐ सागर वाधेगा। जिस कर्मकी जितनी स्थिति पडती है उस स्थितिके समयोंमें कर्मवर्गणाएं आबाधा काल (प्राचीनकाल) पीछे शेष समयोंमें हीन क्रमसे बंट जाती हैं वे यदि कुछ परिवर्तन हो तो उसी वटवारेके अनुसार समय समय गिरती जाती है। यदि बाहरी निमित्त अनुकूल होता हो तो फल प्रगट कर झडती हैं। अनुकूल निमित्त नहीं होता है तो विना फल प्रगट किये ही झड जाती है। जैसे किसी कर्मका बंब होते हुए ६३०० वर्गणाएं बंध व Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । ↓ ८४ ] 154 एकत्र करते हैं व स्वयं ही उन कर्मों का फल दुःख सुख भोग लेते हैं। किसी इश्वर के बीच में पहनेकी जरूरत नहीं है। हम ही कर्मो के कर्ता हैं व हम ही उनके फलके भोक्ता है । यह हमारा विभाव मय कार्य है, स्वभाव नहीं । स्वभावसे हम पुण्य पाप कर्मोके न कर्ता हैं न उनके फलके भोक्ता हैं । ܚܝܠܠܠ ܬܝ 1 ܬܚܬܚܬ १४८ कर्म प्रकृतियां हम गिना चुके है, इनका बंध अधिक व कम सख्यामे नाना प्रकारके जीवोंके होता है । जैसा २ पुरुषार्थी जीव कषायका बल घटाकर वीतराग था शात परिणामी होता जाता है वैसे वैसे कम संख्या में कर्मप्रकृतिएँ बंधती है। संसारी जीन चौदह श्रेणियों या दरजोंके द्वारा उन्नति करते हुए दैव या कर्म के बन्धसे छूटकर मुक्त या शुद्ध चौदह गुणस्थान | होते है । जैसे जैसे दर्जा बढता है, कपायकी कालस या मलीनता कम होती है वैसे वैसे कम संख्याकी कर्म प्रकृतियां बंधती है। किस गुणस्थानमे कितनी प्रकृतियोका बन्ध होता है, इस बात के जाननेके लिये इनका जानना जरूरी । इन आत्मोन्नतिकी श्रेणियोंके नाम इस क्रमसे है (१) मिथ्यात्व, (२) सासादन, (३) मिश्र, (४) अविरत सम्यक्त, (५) देश विरत, (६) प्रमत्तविरत, (७) अप्रमत्तविरत, (८) अपूर्वकरण, (९) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्मसापराय, (११) उपशांतमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगकेवली जिन, (१४) अयोग - केवली जिन । I इनमें से देव और नारकियोंमें पहले चार, तिर्यचोंमे पहले पांच, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. arwmernamurvars............. ८८] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । शुक्लध्यान रहता है। यहींपर दूसरा शुक्लध्यान होजाता है. जिसके प्रभावसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय तीन घातीय काँका नाग हो जाता है, तब चारों घातीयसे रहित होकर केवली याहन्न हो सर्वन केवली जिन नाम पाता है। (१३) सयोगकेवली जिन-अरहन्त परमात्मा होकर धर्मोपदेशका प्रकाश व विहार होता है। आत्मा सर्वन, वीतगग, हितोपदेशी कहलाता है। अन्तमें तीसरा शुलभ्यान होता है तब योग सूक्ष्म रहता है। (१४) अयोग केवली जिन-योगरहित आहन्त परमात्मा बहुत अल्प समयमे चौथे शुक्लध्यानके द्वारा शेष चार अघातीय कर्मोका नाश करके मुक्त होकर सर्व शरीरोंसे रहित सिद्ध परमात्मा हो जाता है । गुणस्थानोंसे बाहर पूर्ण कृतकृत्य होजाता है। आठवें गुणस्थानले दो श्रेणिया है (१) उपशम श्रेणी जहां चारित्र मोहनीयका उपशम होता है, क्षय नहीं होता है। उसके गुणस्थान चार हैं-आठ, नौ, दश, म्यारह । उपशात मोहसे साधु फिर नीचे आता है, सातवें तक या और भी नीचे आ सकता है। क्योकि अन्तर्मुहूर्त पीछे कषायका उदय होजाता है। (२) क्षपश्रेणी जहा चारित्र मोहनीयका क्षय किया जाता है। जो इस श्रेणीपर चढता है वह उसी शरीरसे मुक्त होता है। उसके भी चार गुणम्थान हैं। आठ, नौ, दश, बारह । उस श्रेणीपर चढनेवाला ग्यारहको लांच जाता है। क्षीणमोह होकर फिर केवली अरहन्त होजाता है । 16. ' गुणस्थानोंमें प्रकृति चन्ध-१४८ कर्म प्रकृतियोंमेसे,बंधके Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ । कथन अनेक प्रकारके जीवोंका समुच्चयरूपसे है। एक जीव एक प्रकारके भावसे इतने कर्म नहीं बांधता है । आठों प्रकारके मूल कर्मोंकी उत्तरप्रकृतियोंमें एकसाथ एकममय बंधनेवाले समूहको स्थान कहते है | उनका कथन नीचे प्रकार है ( १ ) ज्ञानावरण ५ भेट हैं। पांचोंका एक स्थान है । पाचों ही प्रकृतिया एकसाथ दावे गुणस्थान तक बरावर बंधती रहती हैं | -५ का स्थान १० वें तक । (२) दर्शनावरणके ९ भेद है, इसके तीन स्थान हैं९-६-४ नौका बंध दूसरे गुण० तक फिर स्त्यानगृद्धि निद्रा निद्रा, प्रचला प्रचला. तीन निद्रा कर्म विना छ का बंघ अपूर्वरण के प्रथम भाग तक फिर निद्रा प्रचला विना चारका ही वंघ दसवें गुणन्यानतक होगा । ९ का (२) तक ६ का ८ तक ४ का १० तक । (३) वेदनीयके २ भेट हैं एक समय साता वा असाता दोमंसे १ यही बंध होता हैं। छठे गुण० तक कभी माता कभी असाताका फिर १ साताका ही बंध १३ वे गुणस्थान तक होता है । साता या असाता (३) तक साता १३ तक । ( ४ ) मोहनीय कर्मके बंधस्थान १० दश हैं । २२, २१, १७, १३, ९.५. ४, ३, २, १ । ( १ ) मिथ्यात्व गुण० मे २२ का स्थान ६ प्रकारसे बंधता है - १ मिध्यात्व कर्म + १६ कषाय भय + जुगुप्सा - हास्य रति - या शोक अरति दो युगलमेसे एकका + तीन वेदमेंसे १ का = २२ १ तीन वेद x २ शीलकी अपेक्षा वे छ· प्रकार इस तरह होंगे (१) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nxnium ...... .........Anirl ९६] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । मनुष्य सहित होगा। इस तरह २५ के बन्ध ६ प्रकार हैं। नं० (३) २६ का वंधस्थान । इसके दो प्रकार होंगे (१) ऊपर २५ मेमे त्रस अपर्याप्त मनुप्याति मनुष्यगत्यानुपूर्वी पंचेंद्रिय जाति महनन अगोंपाग इन ७ को निकाल कर म्यावर पयाप्त. तिर्यचगति, तिर्यगत्यानुपूर्वी, एकेंद्रिय उच्छ्वास, परवात. आतप इन आठके जोडनेसे २६का बंध होगा । एकेंद्रिय पर्याप्त आतप महित होगा। (२) ऊपर १६ मंसे आतप निकालनेस व उद्यान बहानसे २६ का वेवस्थान एकेंद्रिय पर्यत उद्योत महित होगा। नं० (४) २८ का बंधस्थान । इसके २ प्रकार होगे नं०१ प्रकार---देवगति सहित प्रकृति तैजस शरीर, कार्मण शरीर, अगुस्लघु, उपधात, निर्माण, वर्णटि ४, त्रय बादर, पर्याप्त, प्रत्येक. स्थिर अस्थिरमसे एक. शुभ अशुभमेसे एक. सुभग, आदेय, या अयशमेसे एक, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पंचेंद्रिय, वैक्रियिक शरीर. वैक्रियिक अंगोपाग, प्रथम संस्थान, लुस्वर, प्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास, परघात । नं० २ प्रकार-२ पूर्वोक्त तैजस आदि. त्रस बादर, पर्याप्त प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्गम, अनोदय, अयग, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपाग, हुंडक संस्थान, दुस्वर, अप्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास, परघात । इनका बन्ध नरकगति सहित होगा। नं० (५) २९ का बंध स्थान । इनके ६ प्रकार होंगे नं० १-नवपूर्वोक्त (२८) में की तैजस आदि) त्रस, बादर, Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय तीसरा। पर्याप्त, प्रायेक, स्थिर अस्थिानसे एक, शुभ अशुभमेंसे एक, दुर्भग्ट, अनादेय, यश अयास एक. तिथंचगति, तिचगत्यानुपूर्वी, २ इन्द्रिय, औदारिक शरीर. औदारिक अंगोपाग, हुडक संस्थान, असंपाल मंइनन, दम्बर, अप्रशम्न विहायोगति, उच्छ्वाम, परघात, इनका न्य २ इन्द्रिय पर्याप्त सहित होगा। नं. २ प्रकार-उपरोक्त प्रकारमेंसे २ इन्द्रिय निकाल कर तीन इन्द्रिय मिलानसे २० का बन्ध तीन इन्द्रिय पर्याप्त महिन होगा। नं. ३ प्रकार-उपरोक्त २९ मेसे तीन इन्द्रिय निकालकर चौडन्द्रिय मिलानसे २९ का बंध चौइन्द्रिय पर्याप्तके सहित होगा । नं.४ प्रकार--उपरोक्त २९ में चौडन्द्रिय निकालकर पंचन्द्रिय मिलानसे २० का बंध पंचन्द्रिय पर्याप्त तिर्यव सहित बंध होगा परन्तु यहां विशेषता यह है कि स्थिर अस्थिर से एक, सुमग दर्भगमसे एक, शुभ अशुभमेंसे एक, आदेय अनादेयमें से एक, या अयशसे एक, ६ संस्थानमसे एक, ६ संहननमेसे एक, सुस्वर हम्वरमसे एक. अप्रगस्त प्रगस्त विहायोगतिमेसे एक, किसीका कब किसी जीवके होगा। नं०५ प्रकार-उपर्युक्त २९ मेसे तिर्यचगति, तिर्यच गत्यानुपूर्वी निकालकर मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी मिलानेसे २९ का बंध मनुष्यपर्याप्ति सहित होगा। नं०६ प्रकार-९ तैजस आदि त्रस, बादर, प्रत्येक, पर्याप्त स्थिर अस्थिरमेंसे एक, शुभ अशुभमेसे एक, सुभग, आदेय, यश Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Seawar.varsunt mararamicMuml.se १०.] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । नं०५-देशविरत २८ देवसहित, २९ देव तीर्थ सहित ऐसे २ स्थान होंगे। नं० ६-~-प्रमत्त २८ देवसहित, २० देव तीर्थ सहित, ऐसे २ स्थान होंगे। नं० १-अप्रमत्त २८ देवमहित, २९ देव तीर्थ सहित, :३० आहारक सहित, ३१ आहारक तीर्थ सहित ऐसे ४ स्थान होंगे। ___ नं०८--अपूर्वकरण ७ वेके ४ बंधस्थान तथा एक या ऐसे ५ बन्धस्थान होंगे। नं० ९ अनिवृत्तिकरण एक यशका स्थान होगा। नं० १० सूक्ष्मसांपराय यशका एक स्थान होगा। नं० ७ गोत्रकर्म-इसके दो भेद हैं-१ नीच गोत्र, २ उच्च गोत्र । एक जीव एक समयमै ढोमेसे एक स्थान कोई वाधेगा। सं० ८ अन्तरायकर्म-इसके ५ भेद हैं-५ प्रकृतिका स्थान मिथ्यात्व गुणस्थानसे १० वें गुणस्थान तक बन्ध होगा। इस तरह ८ कर्मोंकी उच्च प्रकृतियोंके बन्धस्थान जानने योग्य है। नीचे यह . नक्शा दिया जाता है जिससे विदित होगा कि १५ वन्ध योग्यः प्रकृतिमेंसे हरएक गुणस्थानमें एक जीव एक समय कितनी प्रकृतियांका चन्ध करेगा . Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - o | ar x २ , ५ | ९ w x w x x - गुण जा० | दर्श० वेद० | मोह० आयु नामकर्म गोत्र अन्न जो १ । २२ / १ २३-२५-२६-२८-२९-३०१, ५ ६७-६९-७०-७१-७३ ७४० १/२१ | १ २८-२९-३० १५७१-७२-७३ १७ / ०२८-२९ १/५ ६३-६४ २८-२९-३० १५६४-६५-६६ १२८-२९ १/५६०-६१ २८-२९ २८-२९-३०-३० १५५६-५७-५८-५९। २८-२९-३०-३१-१ | १५ ५५-५६-५७-५८-२६ १५ २२-२१-२०-१९-१८ w w 0.0 6m . systry x x w अध्याय तीसरा। x unido x - x x x x o . o 1.00 o r... ० Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ merrermanwerarmimran.. 10 monexanem ६ प्रमत्त १०४] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । ५ आहारक शरीर, आहारक अंगोपाग, स्त्यानगृद्धि निद्रा निद्रा, प्रचला, प्रचला १७ अप्रमत्त ४ सम्यक्त्व प्र०, अर्धनाराच, कीलित, सपाटिका संहनन ८ अपूर्वकरण ६ हास्य, नि. अरति, गोक, भय. जुगुप्सा, ९ अनिवृत्तिकरण ६ स्त्री, पुरुष, नपुंसकवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया १० सूक्ष्मसापराय १ संज्वलन लोभ १२. उपशांत मोह २ वज्रनाराच, नाराच संहनन १२ क्षीणमोह १६ निद्रा, प्रचला, ज्ञानावरण ५. दर्शना वरण ४, अन्तराय ५ १३ सयोग केवलि २९ वज्रवृषभ नाराच संहनन, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुस्वर, प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपाग, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, ६ संस्थान, ४ वर्णादि, अगुरुलघु, उपघात, परघात. उच्छ्वास, प्रत्येक शरीर १४ अयोग केवलि १३ वेदनीय २, मनुष्यगति, मनुष्यायु, । पंचेन्द्री, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थकर, उच्च गोत्र १२२ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय तीसरा । [ १०५ 11111 ་པ ་ གཡས་ 11 नीचे अब यह बताते हैं कि किस गुणस्थान मे कितनी प्रकृतियोका उदय होता है तथा १२८ मेंसे किसका उदय नही होता है। अर्थात् अनुदय होता है - और कितनेकी व्युच्छित्ति होती है । अनुदय उदय उदय प्रकृति प्रकृति व्युच्छित्ति सख्या मुख्या सख्या मिथ्यात्व ५ ११७ ५ गुणस्थान मामादन ११ १११ मिश्र २२ १०० अविरति १८ १०४ देशविरति ३५ प्रमत्त ४१ अप्रमत्त अपूर्वकरण अतिवृत्ति सूक्ष्म सा० ४६ ܘ ५६ ६२ उपगात मोह श्रीणमोह सयांग केवली अयोग केवलि ११० ६३ ६५ ८० ८७ ८१ ७६ ७२ ६६ ६० ५९ ५७ ४२* १२ ? २७ www ४ ६ १ २ १६ ३० w १२ विवरण अनुदय तीर्थंकर, आहारक शरीर, आहारक अगोपांग, मिश्र, सम्यक्त ११ = १०+ नरकगत्यानुपूर्वी ०२ = २० + तियेच मनुष्य देवगत्यानु० २३ - १ मिश्र = २२ १८=२३-४ गत्यानुपूर्वी १ सम्यक्त= १८ ४१=४३ - आहारक शरीर, आहारक अगोपांग ८०-८१ - १ कोई वेदनीय ३०=२९+१ कोई वेदनीय नोट -- दो वेदनीयमेंमे १ मयांगी गुण० में व्युच्छिन्न होजायगी बाकी १ रहनेसे १२ व्युच्छिन्न होंगी। पहले नकोमं १३ नाना जीवोंकी अपेक्षा है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -AIRememorrarmiremer-msmom rrrrrammam १०८] जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । होसकता है, या भयका अकेले या जुगुप्साका अकेले उढय होसत्ता है अथवा जुगुप्सा भय दोनोंका किसी जीवके उदय नहीं होसकता। नं० १-मिथ्यात्र गुणस्थानमें ४ उदयस्थान होंगे। १०९-९-८ । नं. १ (१० का) मिथ्यात्व प्रकृति १ अनंतानुबंधी आदि क्रोध या मान या माया या लोभ ४ ३ वेदमेंसे १ वेद हास्य रति युगल या शोक अरति युगलमेंसे भय जुगुप्सा नं० २-(९ का ) उपर्युक्त १० मेंसे जुगुप्सा विना . नं. ३-उपर्युक्त १० मेसे भय विना नं ४-उपर्युक्त १० मेंसे भय जुगुप्सा दोनों विना ८ २ सासादन गुणस्थान-~यहां मिथ्यात्वका उदय न होगा, उदयस्थान ४ होंगे। ९-८-८-७ नं० १-४ अनंतानुबंधी आदि क्रोध या मान या माया या लोम ३ वेदमेंसे १ वेद हास्य रति या शोक अरतिमेसे भय जुगुप्सा नं० २-उपर्युक्त ९ में जुगुप्सा विना Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय तीसरा । नं० ३ उपर्युक्त ९ में भय विना नं० ४ ९ में भय जुगुप्सा विना "" ३ मिश्र गुणस्थान ——यहां मिश्र दर्शनमोहका उदय होगा, अनंतानुवन्धी कषायका उदय न होगा, उदय स्थान ४ होंगे । ९ wo ८-८-७ । नं० १ - मिश्र प्रकृति नं० ३ ३ वेदों से वेद हास्य रति या शोक अरतिमेसे भय जुगुप्सा नं० ३. नं० ४. १ -अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन क्रोध या मान या माया या लोभ ३ [ १०९ C 11 ८ नं० १ – सम्यक्त प्रकृति ३ अप्रत्याख्यानादि क्रोध, मान, माया या लोभ ३ वेदमेसे हास्य रति या शोक अरतिमेसे एक भय जुगुप्सामेंसे mov १ नं० २ - उपर्युक्त ९ में जुगुप्सा विना ९ में भय विना ९ में भय जुगुप्सा विना 33 ४ अविरति सम्यक्त - यहा वेदक सम्यक्त्व सहित जीवके सम्यक्त मोहनीका उदय होगा, इस अपेक्षा ४ उदयस्थान होंगे । ९-८-८-७ WW rla V v2 ३ १ लव Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MALINIRMAnkrani... uncannuar-ne ११२] ' जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । नं० २ उपर्युक्त ६ में जुगुप्सा विना नं० ३- ६ में भय विना नं० ४-, ६ में भय जुगुप्सा विना ४ ९ अनिवृत्तिकरण-इसके प्रथम भागमें हास्यादि ६ नोकपायका उदय न होगा, उदयस्थान १-२ प्रकृतिका होगा। नं. १-संज्वलन क्रोध, मान, माया या लोभ १ ३ वेदमेंसे दूसरे भागमे वेदका उदय नहीं तब एकका उदयस्थान होगा। सज्वलन क्रोध, मान, माया या लोभ ३ रे भागमें क्रोधका उदय न होगा १ का उदयस्थान होगा। संज्वलन मान, माया या लोभ ४ थे भागमें मानका उदय न होगा, १ का उदयस्थान होगा। संज्वलन माया या लोभ ५ वें भागमें मायाका उदय न होगा, मात्र १ उदयस्थान लोभका होगा १० सूक्ष्मलोभ गुण-यहां १ सूक्ष्म लोभका उदय होनेसे १ उदयस्थान होमा । ___ इसतरह मोहनीय कर्मके उदयस्थान १०-९-८-७-६५-४-२-१ ऐसे ९ होंगे। विशेष-किसी सादि मिथ्यादृष्टि जीवके अनंतानुबन्धी कपायका उदय नहीं होता । अत. १ प्रकृति घटाकर मिथ्यात्व गुणस्थानमें ४ उदयस्थान ९-०-८-७ के होंगे। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय तीसरा। [११३ ५ व आयुकर्म-इस कर्मका एक ही उदयस्थान एक किसी आयुक्का होता है जिसको वह जीव नरक तिर्यच मनुष्य वा देवगतिमें भोग रहा है। ६ठा नामकर्म-इसके उदयस्थान १२ होते हैं। २०, २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ९. ८ प्रकृतियोंके होते है। इनका विवरण नीचे लिख प्रकार हैनं० (१) २० का उदयस्थान १२ प्रकृति ध्रुव उदय कहाती है जो सबके उदयमे रहती हैं वे ये है-तेजस शरीर. कार्माण गरीर, वर्णादि ४. अगुरुलघु, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ १२ इन १२ मे १ गतिमंस १, ५ गतिमेसे १, श्रम स्थावरमसे १, बादर न ममेसे १, पर्याप्त अपर्याप्तमेसे १, सुभग दुर्भगमसे १, आदेय अनादेयमसे १, या अयगमेसे एक । इन ८ को मिलानेसे २० का उदय १३ वें गुणस्थानमें सामान्य समुद्घात केवलीको कार्माण योगमें होता है। नं० (२) २१ का उदयस्थान- इसके २ प्रकार है नं० (१) प्रकार-उपर्युक्त २० ४ गत्यानुपूर्वीमेंसे कोई १ मिलानेसे २१ का उदय विग्रहगतिमे मोडा लेकर एक गरीरको छोडकर दूसरे गरीरमे जाते हुये १-२ या ३ समय रहता है। नं० (२) प्रकार-उपर्युक्त २० में तीर्थकर प्रकृति जोडनेसे २१ का उदय १३ ३ गुणस्थानमें समुद्घात तीर्थकर केवली के योगमें होता है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] ---` 14. L-100 उच्छ्वास इन ५ को जोड़नेसे २८ का उदय ६ ठे गुणस्थानम आहारक शरीरधारी मुनियों के होता है । जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ | a २ नं० ३ प्रकार ऊपर ४ मेसे औदारिक शरीरको निकालकर वैक्रियक शरीर, वैक्रियक अंगोपाग, पग्वात, एक कोई विद्यायोगति, व उच्छ्वास इन ५ को जोडनेसे २८ का उदय देव या नारकियों क होता है । नं० (८) २९ का उदयस्थानइसके प्रकार ६ है--- नं० १ प्रकार - सामान्य मनुष्यके २८ मे या समुद्घात सामान्य केवलीके २८ मं उच्छ्वास प्रकृति जोडनसे २० का उदय उन्हीं होता है । नं० २ प्रकार — ऊपर २४ में औढारिक अंगोपान, १ कोई संहनन परघात व एक विहायोगति, तथा उद्योत इम तरह ५ प्रकृति जोडनेसे २९ का उदय दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेंद्रिय होता है । नं० ३ प्रकार — इन्हीं २९ मेसे उद्योत निकाल कर तीन उच्छ्वास जोडनेसे २९ का उदय ढो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेद्रिय होता है । नं० ४ प्रकार — ऊपर २४ मे औदारिक अंगोपांग. प्रथम संहनन, परघात, प्रशस्त विहायोगति, तीर्थकर इन ५ को जोडने से २९ का उदय समुद्घात तीर्थकर केवलीके होता है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० गुण शा० दश द० मोनीर र्म / आयु नाम ::.-:.-२-२६-२७-२८-२९-३० ३१ ..-:.-:'५-६ २९-३०-३१ १२०] न० । २......--: -:/-..- -१ १ । ८-3-- १ , --... , २......:-"... जैनधर्ममें टैब और पुरुषार्थ । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय तीसरा । ८- कर्माकी सत्ता अथवा उनका सत्व । सब जगह गुणस्थानों में किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का असत्व, सत्व, सत्य व्युच्छित्ति होती है उसका विवरण निम्नप्रकार है: अमन्त्र मन्त्र १ मिथ्यान्य २ सासादन ३ मित्र ४ असंयत ५ देशयत ६ प्रमत्त ७ अप्रमत्त ८ अपूर्वक ० £૪૮ ३ : ca ★ सत्य व्यु० श्गा क्षपका ८ अनिवृत्ति- १० करण क्ष‍ つ १४८ १ १४७] १ १४६ ० २ १४६ ८ १४५० १४७० १३८ ० १३८ ३६ ९ सूक्ष्म श्र० ४६ १०२ १. १२ क्षीणमोह ४७ ? ?? [ १२१ ནས ་ཚན་ ३= आहारक डिक, तीर्थंकर । इनकी सत्तावाला मानादनमें नहीं जाता । १=अरात्व=नरकायु | यहां १ व्यु० = तियेचायु । " १= तीर्थंकर । तीर्थकर प्रकृतिके सत्य बाला इस गुणस्थान में नहीं जाता । १ = नरकाय । २= नरकायु. तियचाय | इनकी सत्तावा प्रमत्तमं नहीं जायेगा । ८=४ अनंतानुबंधी, ३ दर्शनमोहनीय, १ देवायु। यह कथन क्षपक श्रेणीकी अपेक्षा क्षायिक सम्यक्त्व ४ से ७ वें तक हो सकता है, ७ प्रकृतिकी मत्ता ४ से ७ वें तक नहीं रहेगी । १०=४ अनंतानुबंधी, ३ दर्शनमोहनीय, ३ नरक तिर्यच देवायु | ३६ = नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तियन्न्रगति तियचगत्यानुपूर्वी ३ विकलत्र्य, ३ स्त्यानगृद्धि आदि निद्रा, उद्योत, आतप, एकेन्द्री, साधारण, सूक्ष्म, स्थावर, ४ अप्रत्याख्यान, ४ प्रत्याख्यानके साथ ६ हास्यादि, ३ वेद, संज्वलन क्रोध, माया, मान । १ = मंज्वलन लोभ | १६ = ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तराय, निद्रा प्रचला । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n १२४] जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । e. . . . . . . . . . . . . . worक्षीणकषायके अन्तिम समयतक रहेगी। इस तरह ३ सत्वस्थान होंगे९, ६, ४ । ३ वेदनीय कर्म-इसके २ भेद है। दोनोंकी सत्ता १ लेसे १४ वें गुणस्थान तक रहेगी। ४ मोहनीय कर्म-इसके सत्वस्थान १५ है नं० १-सर्व २८, नं० २-सम्यक्त प्रकृति विना २७ नं० ३-सम्यक्त और मिश्र विना २६. नं० ४-८ में ४ अनंतानुबंधी कषाय विना २४, नं० ५-२४ मे मिथ्यात्वके क्षयसे २३, नं० ६-२३ में से मिश्र कर्मके क्षयसे २२, नं० ७-२२ मे सम्यक्तप्रकृतिके क्षयसे २१, नं. ८-२१ मे १ अप्रत्याग्न्यान और ४ प्रत्याख्यान कपायके क्षयसे १३, न० ९-१३ में नमकवेद या स्त्री वेदके क्षयसे १२, नं० १०-१२ मे नपुंसकवेद या स्त्री वेदके क्षयो० ११, नं० ११-११ मे हाम्यादि ६ नोकभायके क्षयसे ५, नं० १२-५ वें वेदके क्षयसे १. नं० १३-४ में क्रोधक क्षयसे ३, नं० १४-३ मे मानके क्षयसे २, नं० १५-२ में मायाके क्षयसे १ लोभ, इसतरह कुल १५ मत्वस्थान होंगे। गुणस्थानोंकी अपेक्षा इनका विवरण इसप्रकार जानना योग्य हैगुणस्थान सत्वस्थानकी प्रकृतियोंकी संख्या । मिथ्यात्व-२८, २७, २६ सासादन-२८ मिश्र-२८,२४ अविरत-२८, २४, २३, २२,२१ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sation.ima.m.withinid added. nlm...-.. अध्याय तीसरा। [१२५ देशविरत-२८,२४, २३, २२, २१ प्रमत्त-२८, २४, २३, २२, २१ अप्रमत्त–२८, २४, २३, २२, २१ अपूर्वकरण उपशममें-२८, २४, २१, क्षपकमें-२१ अनिवृत्तिकरण उपशममें-२८, २४, २१ । क्षपकमें-२१, १३, १०, ११, ५, ४, ३, २, १ सूक्ष्मसापराय उपशममें-२८, २४, २१ । क्षपक्रम-१ उपशांतमोह-२८, २४, २१ ५ आयुकर्म-भुज्यमान आयु और बद्धमान आयुकी अपेक्षा २ आयुकी सत्ता ७ गुण थान तक होगी तथा ८-९-१०-११ उपशम श्रेणीमें भी २ की सत्ता रहेगी। फिर ८-९-१०-१२ क्षपकमें तथा १३-१४ गुणस्थानमें १ भुज्यमान आयुकी सत्ता रहेगी, अतः सत्वस्थान २ और १ के २ होंगे। ६ नामकर्म-इसके सत्वस्थान १३ हैं-९३, ९२, ९१,. ९०, ८८, ८४, ८२, ८०, ७९, ७८, ७७, १०, ९ इनका विवरण नीचे प्रकार है नं० (१) ९३ नाम कर्मकी सर्व प्रकृति । नं० (२) ९२ तीर्थकर विना सब । नं० (३) ९१-९३ वें आहारक द्विक विना । नं० (४) ९०-९३ में तीर्थकर आहारक द्विक विना । नं० (५) ८८-९० में देवगति, देवगत्यानुपूर्वी विना । नं० (६) ८४८८ में नरकाति, नरकगत्यानुपूर्वी, बैंक्रियक शरीर, वैक्रियक अंगोपांग Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणः | ज्ञा० | दर्श० वेद० मोहनीय कर्म आयु नाम गोत्र न० " १२८] - ८८-८४-८२ د و و له له له لم ل ل ९२-९० GMKuanian ه ه ه ه ه ९३-९२-९१-९० २८-२७-२६ | २८ २८-२४ २८-२४-२३-२२-२ | २८-२४-२३-२२-२१२ २८-२४-२३-२२-२१२ २८-२४-२३-२२-२१२ २८-२४-२१२ २ /२८-२४-२१-१३-१२२ m. د د د د د one or ortonsr د د د د د د د د د m.tr ९३-९२-९१-१० ९६-१२-९१-९० ع م له لم ل م له ९३-९२ ९१-९०-८०-७९-७८ जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । د २ | २८-२४-२१- १ २ ९३-९२-९३-९०-८०.७९-७८- २ . د २ २८-२४.०२१ memen د ل ا R:00 : و د د . ا १३-१२-१-१० ८०-६९-७८-७ ८०-११-54-55 ८0-39-७८-७७.१०-: .. . " دو ة Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय तीसरा। [१२९ इस तरह इस अध्यायमें यह भले प्रकार बतला दिया है कि दैव या कर्मोका संचय या वन्ध इस संसारी जीवके अपने अशुद्ध भावोंसे होता है, किस किस गुणस्थान या दर्जे में कितने काँका बंध उदय या सत्व होता है । इससे प्रगट होगा कि यह जीव ही अपने दैवको आप ही बनानवाला है, और आप ही उसका फल भोक्ता है। और ये जीव ही अपने देवको अपने पुरुषार्थसे बदल सक्ता है और नाश कर सक्ता है इस बातको आगे बताया जायेगा। काँका विशेष वंध उदय सत्यका वर्णन श्री गोम्मटसार कर्मकांडजी नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ति कृतसे जानना योग्य है, यहां तो दिग्दर्शन मात्र कराया है । जैन सिद्धान्तमें इस विषयका बहुत गम्भीर वर्णन है, ज्ञानके खोजियोंको उसका मनन करना चाहिये। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] བདམ ་་ ་ ་ ་ जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ । अध्याय चौथा । * पुरुषार्थका स्वभाव और कार्य । यदि निश्चयनयसे विचार किया जावे तो हरएक पुरुष या आत्मा परम शुद्ध या निर्विकार है, अपने स्वभावका ही कर्ता है और अपने स्वाभाविक आनंदका भोक्ता है, इस दृष्टिमे न संसार है न पुण्य-पाप है, न मोक्ष है, न मोक्षका उपाय है, न ढैव और पुरुषार्थका वर्णन है । व्यवहारनय से संसार और मोक्षका विचार किया जाता है उसी अपेक्षासे दैव और पुरुषार्थका कथन करना उचित है । पुरुषार्थका संक्षेप कथन पहिले अध्यायमे हम कर चुके है, यहा कुछ विस्तारसे लिखा नाता है । हरएक संसारी जीवोंमें चाहे वह शुद्धसे शुद्ध क्यों न हो, जितनी जानने देखनेकी व आत्मबलकी शक्ति प्रगट है, वही उसका पुरुष है अर्थात् आत्माका प्रगट गुण है । इस पुरुषार्थसे मन रहित एकेन्द्रियसे पंचेन्द्रिय तक्के जीव अपनी आवश्यक्ताओंकी पूर्तिका उद्यम किया करते हैं इसको दैव या भाग्यकी खबर ही नहीं है । इसी तरह मन सहित पचेन्द्रिय जीव भी अनेक हैं जो अपनी ज्ञान दर्शन व आत्मबलकी शक्तिसे अपनी इच्छाओंकी पूर्तिका सतत प्रयत्न किया करते हैं। ये भी दैवको नहीं समझते। इसप्रकार उद्यम करते हुये कभी सफल होते हैं कभी असफल । सफल होने में पुण्यकर्मका फल निमित्त कारण है, असफल होनेमें पापकर्मका फल निमित्त कारण है, इस बातको कर्म सिद्धान्तका ज्ञाता समझता है । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय चौथा । ་་ ག कहने का प्रयोजन यह है कि चाहे कोई कर्म सिद्धान्तको जानता हो चाहे न जानता हो. हरएक प्राणीको निरन्तर पुरुषार्थी होना चाहिये । अपनी उचित आवश्यक्ताओंकी पूर्तिका यत्न करना ही चाहिये । दैवके भरोसे बैठ रहना मूर्खता है । प्रयत्नके विना दैव सहायी नहीं होसकता । पुरुषार्थ घडी वस्तु है, यह आत्माकी शक्तिका प्रकाश है, जितना जितना आत्माका या गुण प्रगट होता जाता है, उतना उतना पुरुषार्थ करनेका साधन अधिक होता जाता है । पुरुषार्थमे यह शक्ति है कि संचित कर्मको बल देव और विनाश कर देवे। यह सब हम बता चुके हैं कि राग द्वेष मोहसे कर्मोंका बंध होता है तब इनके विरोधी वा कमका नाश होता है । पुरुषार्थके द्वारा संचित कर्म नीचे लिखे प्रकार परिवर्तन होसकता है- [ १३१ नं० १ संक्रमण - एक कर्मकी प्रकृतिका चदलकर दूसरी प्रकृतिप होजाना संक्रमण है। मूल ८ कम में परस्पर संक्रमण नहीं होता, परन्तु क मृकर्मकी उत्तर प्रकृतियोंमें परस्पर संक्रमण हो मक्ता है। जैसे अमातावेदनीयका मातामं, साताका असातामे, नीच गोत्रका उनमें उनका नीच गोत्र में क्रोध, मान, माया, लोभका परम्परमं परन्तु दीन मोहनीयका, चारित्र मोहनीयरूप संक्रमण नहीं होता, न ४ प्रस्तरकी आयुका परम्पर संक्रमण होता है । जीवोंके निर्मल भावोंके निमित्तसे पाप प्रकृति, पुण्य प्रकृतिमैं पल्ट नाती है जन कि विशेष मलीन भावसे पुण्य प्रकृति पापरूप होजाती है । जैसे किमीने किमीको दुख पहुंचाया तो असाताका बंध किया था पश्चात् उसने पश्चात्ताप किया और वीतरागभावकी भावना Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । भाई तत्र असाता कर्म सातामे पलट सकता है। किसीने किसीको दान देकर सातावेदनीयका वध किया था, पीछे उसने अहंकार किया व ईषांकी व अपनी प्रशंसा गाई तो इस मलीन भावस साताका असातामे संक्रमण हो सकता है। नं० २ उत्तपण-पूर्व बाधे हुये कामें स्थिति और अनुभागका बढ़ जाना उत्कर्षण है। जैसे किमीने दान देकर सातावेदनीयका बंध किया था। कुछ काल बाद उसके ऐसे माव हुये कि ऐमा दान मै और भी कलं। दानसे ही लक्ष्मी सफल होती है। इस विशुद्ध भावसे उम नातावेदनीयन अनुभाग बह जावेगा। नानावरणीय कर्मकी स्थिनि जितनी बाधी थी उसके कुछ काल पीछे उम जीवके विशेष अशुभ भाव हुए जिससे ज्ञानमे अन्तराय पड़े तो इस मलीन भावस ज्ञानावरणीय कर्मकी स्थिति बढ जायगी। नं. ३ अपकर्षण-पूर्व वाधे हुए कर्मोकी स्थिति व अनुमाग घट जाना अपकर्षण है। जैसे किसीने किसीको गाली देकर मोहनीय कर्मका स्थिति अनुभाग बंध किया था. पीछ उसने पश्चात्ताप किया तब उस विशुद्ध भावके कारणसे उम कर्मकी स्थिति अनुभाग घट जावेगे। किसीने नरक आयु एक सागरको स्थिति बाधी थी. कुछ काल बाद उसके कुछ विशुद्धभाव हुये तो नरक आयुकी स्थिति घटकर १००० वर्ष तककी रह सकती है। नं. ४ उदीरणा-जिन कर्मोकी स्थिति अधिक है उस स्थितिको घटाकर कर्माको जल्दी उढयमे लाकर फल नहीं भोगनेको उदीरणा कहते हैं। जैसे किसीको तीन क्षुधाकी बाधा होरही है उस Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ / / जब प्राप्त होजाता है तब ये आत्मतबके मननके अभ्यामका पुस्पार्थ करता है। ___ पुरुषार्थ करते करते जब अनतानुसन्धी कपाय और मिथ्यात्वका उदय उपशम होजाता है अर्थात् दब जाता है नर उपगम सम्यक्त प्राप्त होजाता है। इसका काल अन्तर्मुहूर्त है पीछे छूट भी सकता है व क्षयोपशम मम्यक्तमे बदल सक्ता है. टनपर भी पुन ये प्राप्त होजाता है। इस सम्यक्तके होते हुये मोक्षपुरुषार्थकी कुंजी हाथ आ जाती है। ये उपशम सम्यक्त चौथ गुणस्थानसे 11 वें तक रह सकता है। 7 वे गुणस्थानमे क्षयोपशम सम्यक्तसे जो उपगम सन्यक्त होता है उसको द्विनीयोपगम कहते है। उपशम चारित्र-चारित्रमोहनीय कर्मक उपगमसे प्रगट होता है। उपगम श्रेणीके 8 वे वें 103 113 गुणम्यानम यह रहता है। इसकी स्थिति भी अंतर्मुहुर्त है। 11 वसे गिरकर नीचे 7 वें तक आ जाता है। जब कपायका उदय हो जाता है तो उपगम चारित्र नहीं रहता। आठों कमामेसे मुरन्यनासे मोहनीय कर्मम उपशम भाव होता है। 2 क्षयोपशमिक भाव-ये 18 प्रकारका होता है - 4 जान-मतिज्ञान श्रुतनान, अवधिज्ञान. मन पर्यय जान / 3 अज्ञान-कुमति कुश्रुति, कुअवधिमिथ्यात्व महित ज्ञानको कुनान कहते है, सम्यक्त सहितको ज्ञान कहत है। माधारण जीवोंको कुमति कुश्रुति दो ज्ञान होते है। इन्हीं दोनो ज्ञानों के पुरुपार्थ करनेसे जव सम्यग्दर्शनका उदय होता है तब वे ही ज्ञान मति व श्रुत होजाते है,