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जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ ।।
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व्यवहार करना, तथा संसारको बढानेका श्रद्धान रखना, नास्तिक भाव रखना। चारित्रगुणघातक 'चारित्रमोहनीय', कर्मवन्धके विशेषभाव । :
(१) क्रोध, मान, माया, लोभकी तीव्रता रखनी । . ., (२) अपने व दूसरोंमे तीव्र कषाय भाव पैदा कर देना । । (३) तपसी साधुओंके व्रतोंमें दूषण लगाना । (४) सक्लेश भावसे तप या व्रत करना । (५)सत्यधर्म आदिका हास्य करना, बहुत हंसी व बकवाद करना। (६) धर्मसे अरुचि रखकर खेल कूदमें मगन रहेनौ । । (७) दूसरोंमे पापमें रति व धर्मसे अरति उत्पन्न कर देना । (८) अपने व दूसरों में शोक भाव पैदा कर देना।। (एं) स्वयं भयभीत रहेकर दूसरोंमें भय पैदा कर देना । । (१०) शुभ कामोंसे ग्लानि करना ।
(११) कामविकारकी तीव्रता रखनी । नरकगतिमें रोक रखनेवाले 'नर्कआयुके' बंधके भाव ।
(१)प्राणीपीडाकारी अन्यायपूर्वक बहुत व्यापारर्वआरम्भ करना। (२) धर्मसे विमुख होकर संसारमें बहुत ममता व मुर्छा रखनी।
(३) हिंसा, झूठ, चोरी, रत्री रमण व विषयभोगके प्रति गृद्धभाव रखना । .
(४) दुष्ट रौद्र हिंसाकारी ध्यान रखना । तिर्यंचगतिमें रोकरखनेवाले 'तिर्यंच आयु'कर्मकें बंधकै विशेषभाव। __ (१) मायाचार करना, कुटिल परिणाम रखना, परको ठगना ।