________________
१२] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ ।
है। उसमेंसे पुराने कार्मण स्कंध गिरते रहते हैं सूक्ष्म कार्मण व नए मिलते रहते हैं । जगतमें कार्मण वर्गणाएं ' शरीर। भरी हुई हैं । उनको संसारो आत्माएं अपने मन,
वचन, कायके हलनचलनसे रागद्वेष मोह अशुद्ध भावोंके द्वारा संचय करते रहते हैं। जव अच्छे भाव होते है तब पुण्य कर्मोंका संचय होता है जब बुरे भाव होते है तत्र पाप कर्मोंका संचय होता है । जैसे चुम्बक पापाण लोहेको घसीट लेता है वैसे
आत्माके भाव व हलन चलनसे आत्मा कर्म व स्कंधोंको घसीट कर बांध लेता है। वे कर्म स्वयं पककर कुछ काल पीछे झडने लगते हैं तब वे
फल प्रगट कर सकते है, उसी फलको कर्मका दैव स्वयं फलता है। या दैवका कार्य कहते हैं। उसी फलसे आत्मामें
___क्रोध, मान, माया, लोभ विकारी भाव होते हैं। उसी फलसे बाहरी अवस्था अच्छी या बुरी होती है या धन, संतान आदि शुभ संयोग या अहितकारी बुरे संयोग मिलते हैं। संसारी आत्माएं अपने ही अशुद्ध भावोंसे अपने दैवको बनाते हैं। यह वस्तुका स्वभाव है। जैसे गर्मीका कारण पाकर पानी स्वयं भाफ बन जाता है, वैसे हमारे भावोंका निमित्त पाकर पाप या पुण्यकर्म स्वयं संचय हो जाता है तथा यह स्वयं गिर भी जाता है। जैसे स्थूल शरीरमे हम निरन्तर हवा लेते हैं, निकालते हैं, सोते जागते, श्वास चलता रहता है। हम पानी पीते हैं, भोजन खाते हैं, हवा, पानी, भोजन शरीरमें जाकर स्वयं पकते हैं व रस, रुधिर, मांस, हाड, वीर्य आदि धातुओंको बनाते