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३२] जैनधर्म दैव और पुरुषार्थ ।
३-द्रव्यत्व-जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यमें पर्याय या अवस्थाएं सदा होती रहें । द्रव्य परिणमनगील हो, वढलनकी शक्ति रखता हो, कूटस्थ नित्य न हो, उसी शक्तिसे जगतमे भिन्न २ अवस्थाएं देखनमें आती हैं । पानीसे वर्फ वनती है, भाफ बनती है, गहूंसे रोटी बनती है, मिट्टीसे घडा बनता है, शरीर बालकसे युवा, युवासे वृद्ध हो जाता है। जन्मके वाद मरण, मरणके वाढ जन्म हो जाता है, दिनसे रात रातसे दिन होता है।
-प्रमेयत्व-जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य किसीके ज्ञानका विषय हो, कोई उसको जान सके । यदि द्रव्योंका ज्ञान न हो तो उनका होना भी कैसे कहा जावे ? इससे सिद्ध है कि सर्वन केवली भगवान परमात्मा सब द्रव्योंको जानते है, वे ही अरहंत पदमें या जीवनमुक्त पदमें अपनी दिव्य वाणीसे प्रकाश करते है। अल्पज पूर्ण नहीं जान सक्ते है। जितना जितना ज्ञान बढता है द्रव्यों का ज्ञान अधिक होता है। शुद्ध व निरावरण ज्ञान सत्रको पूर्ण जानता है। द्रव्योंमें वह शक्ति है कि वे जाने जा सकें।
५-अगुरुलघत्व-जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य अपनी मर्यादाको उलंघ,कर कम या अधिक न हो। जितने गुण जिस द्रव्यमें हों वे सदा बने रहें। उनमेंसे कोई गुण कम न हो न कोई गुण मिलकर अधिक द्रव्य अपने गुणसमूहको लिये हुए, सदा ही बना रहे। इसी शक्तिके कारण जीव कभी अजीव नहीं होसक्ता, न अजीव कभी जीव होसक्ता है। . ६-प्रदेशवत्व-जिस शक्तिके निमित्से द्रव्यका कुछ आकार (Size) अवश्य हो। हरएक द्रव्य जो जगतमें, है वह आकाशके