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जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ ।
अध्याय चौथा ।
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पुरुषार्थका स्वभाव और कार्य ।
यदि निश्चयनयसे विचार किया जावे तो हरएक पुरुष या आत्मा परम शुद्ध या निर्विकार है, अपने स्वभावका ही कर्ता है और अपने स्वाभाविक आनंदका भोक्ता है, इस दृष्टिमे न संसार है न पुण्य-पाप है, न मोक्ष है, न मोक्षका उपाय है, न ढैव और पुरुषार्थका वर्णन है ।
व्यवहारनय से संसार और मोक्षका विचार किया जाता है उसी अपेक्षासे दैव और पुरुषार्थका कथन करना उचित है । पुरुषार्थका संक्षेप कथन पहिले अध्यायमे हम कर चुके है, यहा कुछ विस्तारसे लिखा नाता है ।
हरएक संसारी जीवोंमें चाहे वह शुद्धसे शुद्ध क्यों न हो, जितनी जानने देखनेकी व आत्मबलकी शक्ति प्रगट है, वही उसका पुरुष है अर्थात् आत्माका प्रगट गुण है । इस पुरुषार्थसे मन रहित एकेन्द्रियसे पंचेन्द्रिय तक्के जीव अपनी आवश्यक्ताओंकी पूर्तिका उद्यम किया करते हैं इसको दैव या भाग्यकी खबर ही नहीं है ।
इसी तरह मन सहित पचेन्द्रिय जीव भी अनेक हैं जो अपनी ज्ञान दर्शन व आत्मबलकी शक्तिसे अपनी इच्छाओंकी पूर्तिका सतत प्रयत्न किया करते हैं। ये भी दैवको नहीं समझते। इसप्रकार उद्यम करते हुये कभी सफल होते हैं कभी असफल । सफल होने में पुण्यकर्मका फल निमित्त कारण है, असफल होनेमें पापकर्मका फल निमित्त कारण है, इस बातको कर्म सिद्धान्तका ज्ञाता समझता है ।