Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 65
________________ १३२] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । भाई तत्र असाता कर्म सातामे पलट सकता है। किसीने किसीको दान देकर सातावेदनीयका वध किया था, पीछे उसने अहंकार किया व ईषांकी व अपनी प्रशंसा गाई तो इस मलीन भावस साताका असातामे संक्रमण हो सकता है। नं० २ उत्तपण-पूर्व बाधे हुये कामें स्थिति और अनुभागका बढ़ जाना उत्कर्षण है। जैसे किमीने दान देकर सातावेदनीयका बंध किया था। कुछ काल बाद उसके ऐसे माव हुये कि ऐमा दान मै और भी कलं। दानसे ही लक्ष्मी सफल होती है। इस विशुद्ध भावसे उम नातावेदनीयन अनुभाग बह जावेगा। नानावरणीय कर्मकी स्थिनि जितनी बाधी थी उसके कुछ काल पीछे उम जीवके विशेष अशुभ भाव हुए जिससे ज्ञानमे अन्तराय पड़े तो इस मलीन भावस ज्ञानावरणीय कर्मकी स्थिति बढ जायगी। नं. ३ अपकर्षण-पूर्व वाधे हुए कर्मोकी स्थिति व अनुमाग घट जाना अपकर्षण है। जैसे किसीने किसीको गाली देकर मोहनीय कर्मका स्थिति अनुभाग बंध किया था. पीछ उसने पश्चात्ताप किया तब उस विशुद्ध भावके कारणसे उम कर्मकी स्थिति अनुभाग घट जावेगे। किसीने नरक आयु एक सागरको स्थिति बाधी थी. कुछ काल बाद उसके कुछ विशुद्धभाव हुये तो नरक आयुकी स्थिति घटकर १००० वर्ष तककी रह सकती है। नं. ४ उदीरणा-जिन कर्मोकी स्थिति अधिक है उस स्थितिको घटाकर कर्माको जल्दी उढयमे लाकर फल नहीं भोगनेको उदीरणा कहते हैं। जैसे किसीको तीन क्षुधाकी बाधा होरही है उस

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