Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 39
________________ EMAN ७६] जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । १-आदेय-जिसके उदयस प्रभावान गरीर हो। १-अनादेय-~-जिसके उदयसे प्रभाहित शरीर हो। १ यशस्कीर्ति-जिसके उदयसे उत्तम गुणोंका यश फैले। १-अयस्शकीर्ति--जिसके उदयसं सुबग न हो। २-तीर्थकर - जिसके उदयसे तीर्थकर केवली हो। जोड़ ९३--प्रकृति । २-गोत्रकर्म ! १ उच्च गोत्र-जिमके उदयस लोकपृजित बुलम जन्म हो। १ नीच गोत्र-जिसके उदयसे लोकनिन्द्य कुलमें जन्म हो। ५-अंतराय कर्म । १ दानातगय-जिसके उदयमे दान देना चाहे परन्तु दे न सके। १ लाभातराय-जिसके उदयसे लाभ होना चाहे परन्तु लाग न कर सके। १-भोगांतराय-जिसके उदयसे भागना चाहे परन्तु भोग न कर सके। १-उपभोगातराय-जिसके उढयसे उपभोग करना चाहे परन्तु 'कर न सके। १ वीर्यातगय-जिसके उदयसे उत्साह करना चाहे परन्तु उत्साह न कर सके। सर्व १४८ उत्तर प्रकृतिया है। इनमेसे ६८ पुण्य व १०० पाप प्रकृतिया हैं । वर्णादि २०को पुण्य पापप्रकृति । पुण्य व पाप दोनोंमें गिनते हैं। -

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