Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 34
________________ ६४] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ ।। ARMANIRAM antar व्यवहार करना, तथा संसारको बढानेका श्रद्धान रखना, नास्तिक भाव रखना। चारित्रगुणघातक 'चारित्रमोहनीय', कर्मवन्धके विशेषभाव । : (१) क्रोध, मान, माया, लोभकी तीव्रता रखनी । . ., (२) अपने व दूसरोंमे तीव्र कषाय भाव पैदा कर देना । । (३) तपसी साधुओंके व्रतोंमें दूषण लगाना । (४) सक्लेश भावसे तप या व्रत करना । (५)सत्यधर्म आदिका हास्य करना, बहुत हंसी व बकवाद करना। (६) धर्मसे अरुचि रखकर खेल कूदमें मगन रहेनौ । । (७) दूसरोंमे पापमें रति व धर्मसे अरति उत्पन्न कर देना । (८) अपने व दूसरों में शोक भाव पैदा कर देना।। (एं) स्वयं भयभीत रहेकर दूसरोंमें भय पैदा कर देना । । (१०) शुभ कामोंसे ग्लानि करना । (११) कामविकारकी तीव्रता रखनी । नरकगतिमें रोक रखनेवाले 'नर्कआयुके' बंधके भाव । (१)प्राणीपीडाकारी अन्यायपूर्वक बहुत व्यापारर्वआरम्भ करना। (२) धर्मसे विमुख होकर संसारमें बहुत ममता व मुर्छा रखनी। (३) हिंसा, झूठ, चोरी, रत्री रमण व विषयभोगके प्रति गृद्धभाव रखना । . (४) दुष्ट रौद्र हिंसाकारी ध्यान रखना । तिर्यंचगतिमें रोकरखनेवाले 'तिर्यंच आयु'कर्मकें बंधकै विशेषभाव। __ (१) मायाचार करना, कुटिल परिणाम रखना, परको ठगना ।

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