Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 33
________________ अध्याय तीमरा। ...... ........khani.tammana . सत्यको असन्य रहगना । ज्ञानदर्शनके प्रकाशम सर्व ही दोष इन कौके पंचक कारण हैं । . . . . दुःसफलदायक ' असातावेदनीय' कर्मके बन्धके विशेष भाव । (१) दुःख-म्दयं दुःखी होना, दूसरोंको दुःखी करना या ऐसे काम करना व ऐसी बातें करना जिससे आप भी दुखी हो व दमगेको भी दुख हो। (२) शोक-हितकारी वस्तुकं न होनेपर व वियोग होजाने र गोक स्वयं करना या दूमरेको शोकित करना या इस तरह वर्तना, जिससे आप व दृमरे दोनों शोक्ति हों। (३) ताप-अपयश आदि बुग फल होनेके कारण अन्तरंगों तीव स्ताप विदित करना या दुसरेको संतापित कर देना, या ऐसा व्यवहार करना जिम्से आप भी पश्चाताप करें व दुमरे भी पश्चात्ताप के. यहा भावों में सोमपन रहता है। (१) आमन्दन-भीतरी कष्टको रोकर, आंसू बहाकर प्रगट करना या दूसरेको रुला देना, या ऐसा वर्तन करना जिससे आप भी विलाप करे व दूसरे भी रोवें। (५) वध---स्वयं अपने इन्द्रियादि प्राणोंका घात करना. या दमरोंके प्राण लेना या ऐसा वर्ताव करना जिससे आप भी मरे व दसर भी मारे जावें। . . . . . . (६) परिदेवन-ऐसा रुदन करना या रुला देना या आप व दूसरे टोनोंको रुल्यना जिससे सुननेवालोंके भावमें दया होजावे व

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