________________
जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ
42
कथ
३ - बेदनीय, ४ - मोहनीय, ५ – आयु, ६ – नाम, ७-गोत्र, ८-अंतराय । के निमित्त कारण संसारी प्राणीमें होनेवाले योग व कषाय है । विशेष जाननेके लिये हरएक कर्मके बंधके कारण
इन आठ कर्मो
M
71 141
नीचे लिखे भाव है :
1
६०
""" ·
'१ - प्रदोष भाव - तत्वज्ञानकी व मोक्षमार्गकी उपकारी बातें
1
ज्ञानावरण तथा सुनकर या जानकर भावों में प्रसन्न होकर द्वेषभाव दर्शनावरण के कारण या दृष्टभाव या मलीनभाव या पैशून्यमाव, ईर्षा -
"
१
11 ,
*विशेष भाव | माव रखना
।
.
!
२ - निह्नन -- आप जानते हुए भी कहना कि हम नहीं जानते हैं, अपने ज्ञानको छिपाना । ज्ञानके छिपाने में दूसरा कोई उस ज्ञानका लाभ नहीं ले सकेगा, यह दोष होगा ।
34
* 111
मात्सर्य — ईर्षाभावसे ज्ञानदान नहीं करना । दूसरा मी जानकर मेरे बराबर हो जायगा, मेरी प्रतिष्ठा घट जायेगी या मेरा स्वार्थ साधन नहीं होगा ।
ĥ
; F
1:
56
"
8 - अन्तराय — ज्ञानदर्शन के कारणोंको बिगाड़ना, ज्ञानके
.
,
प्रकाशमें विघ्न करना, ज्ञानकी वृद्धि न होने देना, शास्त्रोंको न दिखाना,
byes
K
प्रचार में तन मन धनका लगाना ।
"
ア [
11
५- आसादन - दूसरा कोई ज्ञानका प्रकाश करना चाहता है
15.
उसको मना करना, न कहने देना, ज्ञानीका विनय न करना, गुण
८
1 1
13.7
प्रकाश न होने देना ।
,
1
६ - उपघात -- यथार्थ ज्ञानका कुयुक्तियोंसे खण्डन करना,
-
११
3.